एकपंचाशत्तम (51) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)
महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: एकपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 19-36 का हिन्दी अनुवाद
मुनि को उचित है कि चिंतन के द्वारा चेतना (सम्यग्यान) पाकर मन और इंद्रियों को एकाग्र करके परमात्मा के ध्यान में स्थित हो जाय; क्योंकि जिसका चित्त जिसमें लगा होता है, वह निश्चय ही उसका स्वरूप हो जाता है- यह सनातन गोपनीय रहस्य है। मुनि को उचित है कि चिन्तन के द्वारा चेतना (सम्यग्ज्ञान) पाकर मन और इन्द्रियों को एकाग्र करके परमात्मा के ध्यान में स्थित हो जाय, क्योंकि जिसका चित्त जिसमें लगा होता है, वह निश्चय ही उसका स्वरूप हो जाता है- यह सनातन गोपनीय रहस्य है। व्यक्त लेकर सोलह विशेषों तक सभी अविद्या के लक्षण बताये गये हैं। ऐसा समझना चाहिए कि यह गुणों का ही विस्तार है। दो अक्षर का पद ‘मम’ (यह मेरा है-ऐसा भाव) मृत्यु रूप है और तीन अक्षर का पद ‘न मम’ (यह मेरा नहीं है- ऐसा भाव) सनातन ब्रह्मा की प्राप्ति कराने वाला है। कुछ मन्द-बुद्धि युक्त पुरुष (स्वर्गादि फल प्रदान करने वाले) काम्य-कर्मों की प्रशंसा करते हैं, किंतु वृद्ध महात्माजन उन कर्मों को उत्तम नहीं बतलाते। क्योंकि सकाम कर्म के अनुष्ठान से जीव को सोलह विकारों से निर्मित स्थूल शरीर धारण करके जन्म लेना पड़ता है और वह सदा अविद्या का ग्रास बना रहता है। इतना ही नहीं, कर्मठ पुरुष देवताओं के भी उपभोग का विषय होता है। इसलिये जो कोई पारदर्शी विद्वान होते हैं, वे कर्मों में आसक्त नहीं होते, क्योंकि यह पुरुष (आत्मा) ज्ञानमय है, कर्ममय नहीं। जो इस प्रकार चेतन आत्मा को अमृतस्वरूप, नित्य, इन्द्रियातीत, सनातन, अक्षर, जितात्मा एवं असंग समझता है, वह कभी मृत्यु के बन्धन में नहीं पड़ता। जिसकी दृष्टि में आत्मा अपूर्व (अनादि), अकृत (अजन्मा), नित्य, अचल, अग्राह्य और अमृताशी है, वह इन गुणों का चिन्तन करने से स्वयं भी अग्राह्य (इन्द्रियातीत) निश्चल एवं अमृत स्वरूप हो जाता है, जो चित्त को शुद्ध करने वाले सम्पूर्ण संस्कारों का सम्पादन करके मन को आत्मा के ध्यान में लगा देता है, वही इस कल्याणमय ब्रह्मा को प्राप्त करता है, जिससे बड़ा कोई नहीं है। सम्पूर्ण अन्त:करण के स्वच्छ हो जाने पर साधक को शुद्ध प्रसन्नता प्राप्त होती है। जैसे स्वप्न से जगे हुए मनुष्य के लिये स्वप्न शान्त हो जाता है, उसी प्रकार चित्त शुद्धि का लक्षण है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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