महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 36 श्लोक 20-36

षटत्रिंश (36) अध्‍याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

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महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: षटत्रिंश अध्याय: श्लोक 20-36 का हिन्दी अनुवाद

अतिवाद, अक्षमा, मत्सरता, अभिमान और अश्रद्धा को भी तमोगुण का बर्ताव माना गया है। संसार में ऐसे बर्ताव वाले और धर्म की मर्यादा भंग करने वाले जो भी पापी मनुष्य हैं, वे सब तमोगुणी माने गये हैं। ऐसे पापी मनुष्यों के लिये दूसरे जन्म में जो योनियाँ निश्चित की हुई हैं, उनका परिचय दे रहा हूँ। उनमें से कुछ तो नीचे नरकों में ढकेले जाते हैं और कुछ तिर्यग्योनियों में जन्म ग्रहण करते हैं। स्थावर (वृक्ष-पर्वत आदि) जीव, पशु, वाहन, राक्षस, सर्प, कीड़े-मकोड़े, पक्षी, अण्डज प्राणी, चौपाये, पागल, बहरे, गूँगे तथा अन्य जितने पापमय रोग वाले (कोढ़ी आदि) मनुष्य हैं, वे सब तमोगुण में डूबे हुए हैं। अपने कर्मों के अनुसार लक्षणों वाले ये दुराचारी जीव सदा दु:ख में निमग्न रहते हैं। उनकी चित्तवृत्तियों का प्रवाह निम्न दशा की ओर होता है, इसलिये उन्हें अर्वाक्‌ स्त्रोत कहते हैं। वे तमोगुण में निमग्न रहने वाले सभी प्राणी तामसी हैं। इसके पश्चात मैं यह वर्णन करूँगा कि उन तामसी योनियों में गये हुए प्राणियों का उत्थान और समृद्धि किस प्रकार होती है तथा वे पुण्यकर्मा होकर किस प्रकार श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त होते हैं।

जो विपरीत योनियों को प्राप्त प्राणी हैं, उनके (पाप कर्मों का भोग पूरा हो जाने पर) जब पूर्वकृत पुण्य कर्मों का उदय होता है, तब वे शुभ कर्मों के संस्कारों के प्रभाव से स्वकर्मनिष्ठ कल्याणकामी ब्राह्मणों की समानता को प्राप्त होते हैं अर्थात उनके कुल में उत्पन्न होते हैं और वहाँ पुन: यत्नशील होकर ऊपर उठते हैं एवं देवताओं के स्वर्गलोक में चले जाते हैं- यह वेद की श्रुति है। वे पुनरावृत्तिशील सकाम धर्म का आचरण करने वाले मनुष्य देवभाव को प्रात हो जाने के अनन्तर जब वहाँ से दूसरी योनि में जाते हैं तब यहाँ (मृत्यु लोक में) मनुष्य होते हैं। उनमें से कोई- कोई (बचे हुए पाप कर्म का फल भोगने के लिये) पुन: पापयोनि से युक्त चाण्डाल, गूँगे और अटककर बोलने वाले होते हैं और प्राय: जन्म जन्मान्तर में उत्तरोत्तर उच्च वर्ण को प्राप्त होते हैं। कोई शूद्र योनि से आगे बढ़कर भी तामस गुणों से युक्त हो जाते हैं और उसके प्रवाह में पड़कर तमोगुण में ही प्रवृत्त रहते हैं। यह जो भोगों में आसक्त हो जाना है, यही महामोह बताया गया है। इस मोह में पड़कर भोगों का सुख चाहने वाले ऋषि, मुनि और देवगण भी मोहित हो जाते हैं। (फिर साधारण मनुष्यों की तो बात ही क्या है?) तम (अविद्या), मोह (अस्मिता), महामोह (राग), क्रोध नाम वाला तामिस्र और मृत्यु रूप अन्धतामिस्र यह पांच प्रकार की तामसी प्रकृति बतलायी गयी है। क्रोध को ही तामिस्र कहते हैं।

विप्रवरो! वर्ण, गुण, योनि और तत्त्व के अनुसार मैंने आप से तमोगुण का पूरा-पूरा यथावत वर्णन किया। जो अतत्त्व में तत्त्व दृष्टि रखने वला है, ऐसा कौन सा मनुष्य इस विषय को अच्छी तरह देख और समझ सकता है? यह विपरित दृष्टि तमोगुण की यथार्थ पहचान है। इस प्रकार तमोगुण के स्वरूप और उसके कार्यभूत नाना प्रकार के गुणों का यथावत वर्णन किया गया तथा तमोगुण से प्राप्त होने वाली ऊँची नीची योनियाँ भी बतला दी गयीं। जो मनुष्य इन गुणों को ठीक-ठीक जानता है, वह सम्पूर्ण तामसिक गुणों से सदा मुक्त रहता है।


इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्मेधिक पर्व के अन्तर्गत अनुगीतापर्व में गुरु-शिष्य संवादविषयक छत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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