पंचदश (15) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (अश्वमेध पर्व)
महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: अष्टाविंश अध्याय: श्लोक 13-28 का हिन्दी अनुवाद
अध्वर्यु ने कहा- यते! यह तो तुम मानते ही हो कि सभी भूतों में प्राण है, तो भी तुम पृथ्वी के गन्ध गुणों का उपभोग करते हो, जलमय रसों को पीते हो, तेज के गुण? रूप का दर्शन करते हो और वायु के गुण स्पर्श को छूते हो, आकाशजनित शब्दों को सुनते हो और मन से मति का मनन करते हो। एक ओर तो तुम किसी प्राणी के प्राण लेने के कार्य से निवृत्त हो और दूसरी ओर हिंसा में लगे हुए हो। द्विजवर! कोई भी चेष्टा हिंसा के बिना नहीं होती। फिर तुम कैसे समझते हो कि तुम्हारे द्वारा अहिंसा का ही पालन हो रहा है? यति ने कहा- आत्मा के रूप हैं- एक अक्षर और दूसरा क्षर। जिसकी सत्ता तीनों कालों में कभी नहीं मिटती वह सत्स्वरूप अक्षर (अविनाशी) कहा गया है तथा जिसका सर्वथा और सभी कालों में अभाव है, वह क्षर कहलाता है। प्राण, जिह्वा, मन और रजोगुण सहित सत्त्वगुण- ये रज अर्थात माया सहित सद्भाव हैं। इन भावों से मुक्त निर्द्वन्द्व, निष्काम, समस्त प्राणियों के प्रति संंभाव रखने वाले, ममता रहित, जितात्मा तथा सब ओर से बन्धन शून्य पुरुष को कभी और कहीं भी भय नहीं होता। अध्वर्यु ने कहा- बुद्धिमान में श्रेष्ठ यते! इस जगत में आप जैसे साधु पुरुषों के साथ ही निवास करना उचित है। आपका यह मत सुनकर मेरी बुद्धि में भी ऐसी ही प्रतीति हो रही है। भगवन! विप्रवर! मैं आपकी बुद्धि से ज्ञान सम्पन्न होकर यह बात कह रहा हूँ कि वेद मंत्रों द्वारा निश्चित किये हुए व्रत का ही मैं पालन कर रहा हूँ। अत: इसमें मेरा कोई अपराध नहीं है। ब्राह्मण कहते हैं- प्रिये! अध्वर्यु की दी हुई युक्ति से वह यति चुप हो गया और फिर कुछ नहीं बोला। फिर अध्वर्यु भी मोह रहित होकर उस महायज्ञ में अग्रसर हुआ। इस प्रकार ब्राह्मण मोक्ष का ऐसा ही अत्यन्त सूक्ष्म स्वरूप बताते हैं और तत्त्दर्शी पुरुष के उपदेश के अनुसार उस मोक्ष धर्म को जानकर उसका अनुष्ठान करते हैं।
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्व के अन्तर्गत अनुगीतापर्व के ब्राह्मण गीताविषयक अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अत: जो कमा ईधन से होता है, उसके लिये पशु हिंसा क्यों की जाय?
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज