महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 18 श्लोक 19-32

अष्टादश (18) अध्‍याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

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महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: अष्टादश अध्याय: श्लोक 19-32 का हिन्दी अनुवाद


सत्पुरुषों में सदा ही इस प्रकार का धार्मिक आचरण देखा जाता है। उन्हीं में धर्म की अटल स्थिति होती है। सदाचार ही धर्म का परिचय देता है। शान्तचित्त महात्मा पुरुष सदाचार में ही स्थित रहते हैं। उन्हीं में पूर्वोक्त दान आदि कर्मों की स्थिति है। वे ही कर्म सनातन धर्म के नाम से प्रसिद्ध हैं। जो उस सनातन धर्म का आश्रय लेता है, उसे कभी दुर्गति नहीं भोगनी पड़ती है। इसीलिये धर्म मार्ग से भ्रष्ट होने वाले लोगों का नियंत्रण किया जाता है। जो योगी और मुक्त है, वह अन्य धर्मात्माओं की अपेक्षा श्रेष्ठ होता है। जो धर्म के अनुसार बर्ताव करता है, वह जहाँ जिसे अवस्था में हो, वहाँ उसी स्थिति में उसको अपने कर्मानुसार उत्तम फल की प्राप्ति होती है और वह धीरे-धीरे अधिक काल बीतने पर संसार-सागर से तर जाता है। इस प्रकार जीव सदा अपने पूर्वजन्मों में किये हुए कर्मों का फल भोगता है। यह आत्मा निर्विकार ब्रह्म होने पर भी विकृत होकर इस जगत में जो जन्म धरण करता है, उसमें कर्म ही कारण है।

आत्मा के शरीर धारण करने की प्रथा सबसे पहले किसने चलायी है, इस प्रकार संदेह प्राय: लोगों के मन में उठा करता है, अब: उसी का उत्तर दे रहा हूँ। सम्पूर्ण जगत के पितामह ब्रह्मा जी ने सबसे पहले स्वयं ही शरीर धारण करके स्थावर-जंगम रूप समस्त त्रिलोकी की (कर्मानुसार) रचना की। उन्होंने प्रधान नामक तत्त्व की उत्पत्ति की, जो देहधारी जीवों की प्रकृति कहलाती है। जिसने इस सम्पूर्ण जगत को व्याप्त कर रखा है तथा लोक में जिसे मूल प्रकृति के नाम से जानते हैं। यह प्राकृत जगत क्षर कहलाता है, इससे भिन्न अविनाशी जीवात्मा को अक्षर कहते हैं। (इनसे विलक्षण शुद्ध पर ब्रह्म हैं)- इन तीनों से जो दो तत्त्व- क्षर और अक्षर हैं, वे सब प्रत्येक जीव के लिये पृथक-पृथक होते हैं। श्रुति में जो सृष्टि के आरम्भ में समरूप से निर्दिष्ट हुए हैं, उन प्रजापति ने समस्त स्थावर भूतों और जंगम प्राणियों की सृष्टि की है, यह पुरातन श्रुति है।

पितामह ने जीव के लिये नियत समय तक शरीर धारण किये रहने की, भिन्न-भिन्न योनियों में भ्रमण करने की और परलोक से लौटकर फिर इस लोक में जन्म लेने आदि की भी व्यवस्था की है। जिसने पूर्वजन्म में अपने आत्मा का साक्षात्कार कर लिया हो, ऐसा कोई मेधावी अधिकारी पुरुष संसार की अनित्यता के विषयक में जैसी बात कह सकता है, वैसी ही मैं भी कहूँगा। मेरी कही हुई सारी बातें यथार्थ और संगत होंगी। जो मनुष्य सुख और दु:ख दोनों को अनित्य समझता है, शरीर को अपवित्र वस्तुओं का समूह समझता है और मृत्यु को कर्म का फल समझता है तथा सुख के रूप में प्रतीत होने वाला जो कुछ भी है वह सब दु:ख ही दु:ख है, ऐसा मानता है, वह घोर एवं दुस्तर संसार सागर से पार हो जायगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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