सप्तनवतितम (97) अध्याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: सप्तवतितम अध्याय: श्लोक 16-32 का हिन्दी अनुवाद
जनमेजय! तदनन्तर बहुत-से ब्राह्मणों ने मिलकर वेदोक्त विधियों के अनुसार शान्तनु का नामकरण-संस्कार भी किया। तत्पश्चात् बड़े होने पर राजकुमार शान्तनु लोकरक्षा का कार्य करने लगे। वे धर्मज्ञों में श्रेष्ठ थे। उन्होंने धनुर्वेद में उत्तम योग्यता प्राप्त करके वेदाध्ययन भी ऊंची स्थिति प्राप्त की। वक्ताओं में सर्वश्रेष्ठ वे राजकुमार धीरे-धीरे युवावस्था में पहुँच गये। अपने सत्कर्म के द्वारा उपार्जित अक्षय पुण्यलोकों का स्मरण करके कुरुश्रेष्ठ शान्तनु सदा पुण्यकर्मों के अनुष्ठान में ही लगे रहते थे। युवावस्था में पहुँचे हुए राजकुमार शान्तनु को राजा प्रतीप ने आदेश दिया- ‘शान्तनो! पूर्वकाल में मेरे समीप एक दिव्य नारी आयी थी। उसका आगमन तुम्हारे कल्याण के लिये ही हुआ था। बेटा! यदि वह सुन्दरी कभी एकान्त में तुम्हारे पास आवे, तुम्हारे प्रति कामभाव से युक्त हो और तुमसे पुत्र पाने की इच्छा रखती हो, तो तुम उत्तम रुप से सुशोभित उस दिव्य नारी से अंगने! तुम कौन हो? किसकी पुत्री हो? इत्यादि प्रश्न न करना। अनघ! वह जो कार्य करे, उसके विषय में भी तुम्हें कुछ पूछ-ताछ नहीं करनी चाहिये। यदि वह तुम्हें चाहे, तो मेरी आज्ञा से उसे अपनी पत्नी बना लेना।' ये बातें राजा प्रतीप ने अपने पुत्र से कहीं। वैशम्पायन जी कहते हैं- अपने पुत्र शान्तनु को ऐसा आदेश देकर राजा प्रतीप ने उसी समय उन्हें अपने राज्य पर अभिषिक्त कर दिया और स्वयं वन में प्रवेश किया। बुद्धिमान राजा शान्तनु देवराज इन्द्र के सामन तेजस्वी थे। वे हिंसक पशुओं को मारने के उद्देश्य से वन में घूमते रहते थे। राजाओं में श्रेष्ठ शान्तनु हिंसक पशुओं और जंगली भैसों को मारते हुए सिद्ध एवं चारणों से सेवित गंगा जी के तट पर अकेले ही विचरण करते थे। महाराज जनमेजय! एक दिन उन्होंने एक परमसुन्दरी नारी देखी, जो अपने तेजस्वी शरीर से ऐसी प्रकाशित हो रही थी, मानो साक्षात् लक्ष्मी ही दूसरा शरीर धारण करके आ गयी हो। उसके सारे अंग परम सुन्दर और निर्दोष थे। दांत तो और भी सुन्दर थे। वह दिव्य आभूषणों से विभूषित थी। उसके शरीर पर महीन साड़ी शोभा पा रही थी और कमल के भीतरी भाग के समान उसकी कान्ति थी, वह अकेली थी। उसे देखते ही राजा शान्तनु के शरीर में रोमाञ्च हो आया, वे उसकी रूप-सम्पत्ति से आश्चर्यचकित हो उठे और दोनों नेत्रों द्वारा उसकी सौन्दर्य-सुधा का पान करते हुए-से तृप्त नहीं होते थे। वह भी वहाँ विचरते हुए महातेजस्वी राजा शान्तनु को देखते ही मुग्ध हो गयी। स्नेहवश उसके हृदय में सौहार्द का उदय हो आया। वह विलासिनी राजा को देखते-देखते तृप्त नहीं होती थी। तब राजा शान्तनु ने उसे सान्त्वना देते हुए मधुर वाणी में बोले- ‘सुमध्यमे! तुम देवी, दानवी, गन्धर्वी, अप्सरा, यक्षी, नागकन्या अथवा मानवी, कुछ भी क्यों न होओ; देवकन्याओं के समान सुशोभित होने वाली सुन्दरी! मैं तुमसे याचना करता हूँ कि मेरी पत्नी हो जाओ।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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