चतुर्नवतितम (94) अध्याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: चतुर्नवतितम अध्याय: श्लोक 42-64 का हिन्दी अनुवाद
कुरु को धर्मज्ञ मानकर सम्पूर्ण प्रजावर्ग के लोगों ने स्वयं उनका राजा के पद पर वरण किया। उन्हीं के नाम से पृथ्वी पर कुरुजांगलदेश प्रसिद्ध हुआ। उन महातपस्वी कुरु ने अपनी तपस्या के बल से कुरुक्षेत्र को पवित्र बना दिया। उनके पांच पुत्र सुने गये हैं- अश्ववान, अभिष्यन्त, चैत्ररथ, मुनि तथा सुप्रसिद्ध जनमेजय! इन पांचों पुत्रों को उनकी मनस्विनी पत्नी वाहिनी ने जन्म दिया था। अश्ववान् का दूसरा नाम अविक्षित था। उसके आठ पुत्र हुए, जिनके नाम इस प्रकार हैं- परिक्षित्, पराक्रमी शबलाश्व, आदिराज, विराज, महाबली शल्मलि,उच्चै:श्रवा, भंगकार तथा आठवां जितारि। इनके वंश में जनमेजय आदि अन्य सात महारथी भी हुए, जो अपने कर्मजनित गुणों से प्रसिद्ध हैं। परिक्षित् के सभी पुत्र धर्म और अर्थ के ज्ञाता थे; जिनके नाम इस प्रकार हैं- कक्षसेन, उग्रसेन, पराक्रमी चित्रसेन, इन्द्रसेन, सुषेण और भीमसेन। जनमेजय के महाबली पुत्र भूमण्डल में विख्यात थे। उनमें प्रथम पुत्र का नाम धृतराष्ट्र था। उनसे छोटे क्रमश: पाण्डु, वाह्लीक महातेजस्वी निषध, बलवान् जाम्बूनद, कुण्डोदर, पदाति तथा वसाति थे। इनमें वसाति आठवां था। ये सभी धर्म और अर्थ में कुशल तथा समस्त प्राणियों के हित में संलग्न रहने वाले थे। इनमें धृतराष्ट्र राजा हुए। उनके पुत्र कुण्डिक, हस्ती, वितर्क, क्राथ, कुण्डिन, हवि:श्रवा, इन्द्राभ, भुमन्यु और अपराजित थे। भारत! इनके सिवा प्रतीप, धर्म नेत्र और सुनेत्र ये तीन पुत्र और थे। धृतराष्ट्र के पुत्रों में ये ही तीन इस भूतल पर अधिक विख्यात थे। इनमें भी प्रतीप की प्रसिद्धि अधिक थी। भूमण्डल में उनकी समानता करने वाला कोई नहीं था। भरतश्रेष्ठ! प्रतीप के तीन पुत्र हुए- देवापि, शान्तनु और महारथी वाह्लीक। इनमें से देवापि धर्माचरण द्वारा कल्याण प्राप्ति की इच्छा से वन को चले गये, इसलिये शान्तनु एवं महारथी वाह्लीक ने इस पृथ्वी का राज्य प्राप्त किया। राजन्! भरत के वंश में सभी नरेश धैर्यवान् एवं शक्तिशाली थे। उस वंश में बहुत-से श्रेष्ठ नृपतिगण देवर्षियों के सामन थे। ऐसे ही और कितने ही देवतुल्य महारथी मनुवंश में उत्पन्न हुए थे, जो महाराज पूरुरवा के वंश की वृद्धि करने वाले थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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