त्रिनवतितम (93) अध्याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: त्रिनवतितम अध्याय: श्लोक 15-28 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! तदनन्तर वे सभी नृपश्रेष्ठ उन दिव्य रथों पर आरूढ़ हो धर्म के बल से स्वर्ग में पहुँचने के लिये चल दिये। उस समय पृथ्वी और आकाश में उनकी प्रभा व्याप्त हो रही थी। अष्टक, शिबि, काशिराज प्रतर्दन तथा इक्ष्वाकुवंशी वसुमना- ये चारों साधु नरेश यज्ञान्त-स्नान करके एक साथ स्वर्ग में गये। अष्टक बोले- राजन्! महात्मा इन्द्र मेरे बड़े मित्र हैं, अत: मैं तो समझता था कि अकेला ही मैं सबसे पहले उनके पास पहुँचूंगा। परंतु ये उशीनरपुत्र शिबि अकेले सम्पूर्ण वेग से हम सबके वाहनों को लांघकर आगे बढ़ गये हैं, ऐसा कैसे हुआ। ययाति ने कहा- राजन्! उशीनर के पुत्र शिबि ने ब्रह्मलोक के मार्ग की प्राप्ति के लिये अपना सर्वस्व दान कर दिया था, इसलिये ये तुम सब लोगों में श्रेष्ठ हैं। नरेश्वर! दान, तपस्या, सत्य, धर्म, ह्री, श्री, क्षमा, सौम्यभाव और व्रत-पालन की अभिलाषा- राजा शिबि में ये सभी गुण अनुपम हैं तथा बुद्धि में भी उनकी समता करने वाला कोई नहीं है। राजा शिबि ऐसे सदाचार सम्पन्न और लज्जाशील हैं! (इनमें अभिमान की मात्रा छू भी नहीं गयी है।) इसीलिये शिबि हम सबसे आगे बढ़ गये हैं। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर अष्टक ने कौतुहलवश इन्द्र के तुल्य अपने नाना राजा ययाति से पुन: प्रश्न किया। महाराज! आपसे एक बात पूछता हूँ। आप उसे सच-सच बताइये। आप कहाँ से आये हैं, कौन हैं और किसके पुत्र हैं? आपने जो कुछ किया है, उसे करने वाला आपके सिवा दूसरा कोई क्षत्रिय अथवा ब्राह्मण इस संसार में नहीं है। ययाति ने कहा- मैं नहुष का पुत्र और पुरु का पिता राजा ययाति हूँ। इस लोक में चक्रवर्ती नरेश था। आप सब लोग मेरे अपने हैं; अत: आपसे गुप्त बात भी खोलकर बतलाये देता हूँ। मैं आप लोगों का नाना हूँ। (यद्यपि पहले भी यह बात बता चुका हूं, तथापि पुन: स्पष्ट कर देता हूं)। मैंने इस सारी पृथ्वी को जीत लिया था। मैं ब्राह्मणों को अन्न-वस्त्र दिया करता था। मनुष्य जब एक सौ सुन्दर पवित्र अश्वों का दान करते हैं तब वे पुण्यात्मा देवता होते हैं। मैंने तो सवारी, गौ, सुवर्ण तथा उत्तम धन से परिपूर्ण यह सारी पृथ्वी ब्राह्मणों को दान कर दी थी एवं सौ अर्बुद (दस अरब) गौओं का दान भी किया था। सत्य से ही पृथ्वी और आकाश टिके हुए हैं। इसी प्रकार सत्य से ही मनुष्य-लोक में अग्नि प्रज्वलित होती है। मैंने कभी व्यर्थ बात मुंह से नहीं निकाली है; क्योंकि साधु पुरुष सदा सत्य का ही आदर करते हैं। अष्टक! मैं तुमसे, प्रतर्दन से और उपदश्व के पुत्र वसुमान् से भी यहाँ जो कुछ कहता हूं; वह सब सत्य ही है। मेरे मन का यह विश्वास है कि समस्त लोक, मुनि और देवता सत्य से ही पूजनीय होते हैं। जो मनुष्य हृदय में ईर्ष्या ने रखकर स्वर्ग पर अधिकार करने वाले हम सब लोगों के इस वृत्तान्त को यथार्थ रुप से श्रेष्ठ द्विजों के सामने सुनायेगा, वह हमारे ही समान पुण्य लोकों को प्राप्त कर लेगा। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! राजा ययाति बड़े महात्मा थे। शत्रुओं के लिये अजेय और उनके कर्म अत्यन्त उदार थे। उनके दौहित्रों ने उनका उद्धार किया और वे अपने सत्कर्मों द्वारा सम्पूर्ण भूमण्डल को व्याप्त करके पृथ्वी छोड़कर स्वर्गलोक में चले गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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