एकाशीतितम (81) अध्याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: एकाशीतितम अध्याय: श्लोक 18-31 का हिन्दी अनुवाद
ययाति बोले– देवी! विज्ञ पुरुष को चाहिये कि वह ब्राह्मण को क्रोध में भरे हुए विषधर सर्प तथा सब ओर से प्रज्वलित अग्नि से भी अधिक दुर्धर्ष एवं भयंकर समझे। देवयानी ने कहा- पुरुषप्रवर! ब्राह्मण विषधर सर्प और सब ओर से प्रज्वलित होने वाली अग्नि से भी दुर्धर्ष एवं भयंकर है, यह बात आपने कैसे कही? ययाति बोले- भद्रे! सर्प एक को ही मारता है, शस्त्र से भी एक ही व्यक्ति का वध होता है; परंतु क्रोध में भरा हुआ ब्राह्मण समस्त राष्ट्र और नगर का भी नाश कर देता है। भीरू! इसीलिये मैं ब्राह्मण को अधिक दुर्धर्ष मानता हूँ। अत: जब तक आपके पिता आपको मेरे हवाले न कर दें, तब तक मैं आपसे विवाह नहीं करूंगा। देवयानीने कहा- राजन्! मैंने आपका वरण कर लिया है, अब आप मेरे पिता के देने पर ही मुझसे विवाह करें। आप स्वयं तो उनसे याचना करते नहीं हैं; उनके देने पर ही मुझे स्वीकार करेंगे। अत: आपको उनके कोप का भय नहीं है। राजन्! दो घड़ी ठहर जाइये। मैं अभी पिता के पास संदेश भेजती हूँ। धाय! शीघ्र जाओ और मेरे ब्रह्म तुल्य पिता को यहाँ बुला ले आओ। उनके यह भी कह देना कि देवयानी ने स्वयंवर की विधि से नहुषनन्दन राजा ययाति का पति रुप में वरण किया है। वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! इस प्रकार देवयानी ने तुरंत धाय को भेजकर अपने पिता को संदेश दिया। धाय ने जाकर शुक्राचार्य से सब बातें ठीक-ठीक बता दीं। सब समाचार सुनते ही शुक्राचार्य ने वहाँ आकर राजा को दर्शन दिया। विप्रवर शुक्राचार्य को आया देख राजा ययाति ने उन्हें प्रणाम किया और हाथ जोड़कर विनम्र भाव से खड़े हो गये। देवयानी बोली- तात! ये नहुषपुत्र राजा ययाति हैं। इन्होंने संकट के समय मेरा हाथ पकड़ा था। आपको नमस्कार है। आप मुझे इन्हीं की सेवा में समर्पित कर दें। मैं इस जगत् में इनके सिवा दूसरे किसी पति का वरण नहीं करुंगी। शुक्राचार्य ने कहा- वीर नहुषनन्दन! मेरी इस लाडली पुत्री ने तुम्हें पति रुप में वरण किया है; अत: मेरी इस दी हुई कन्या को तुम अपनी पटरानी के रूप में ग्रहण करो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज