महाभारत: आदि पर्व: अष्टसप्ततितम अध्याय: श्लोक 13-14 का हिन्दी अनुवाद
इससे बढ़कर महान् दु:ख की बात मैं अपने लिये तीनों लोकों में और कुछ नहीं मानती हूँ। इसमें संदेह नहीं कि कटुवचन मर्मस्थलों को विदीर्ण करेन वाला होता है। कटुवादी मनुष्यों से उनके सगे-सम्बन्धी और मित्र भी प्रेम नहीं करते हैं। जो श्रीहीन होकर शत्रुओं की चमकती हुई लक्ष्मी की उपासना करता है, उस मनुष्य का तो मर जाना ही अच्छा है; ऐसा विद्वान् पुरुष अनुभव करते हैं। नीच मनुष्यों के संग से मनुष्य धीरे-धीरे अपमानित हो जाता है। मुख से कटुवचनरूपी बाण छूटते हैं, उससे आहत होकर मनुष्य रात-दिन शोक में डूबा रहता है। शस्त्र, विष और अग्नि से प्राप्त होने वाला दु:ख शनै:-शनै: अनुभव में आता है (परंतु कटुवचन तत्काल ही अत्यन्त कष्ट देने लगता है)। अत: विद्वान् पुरुष को चाहिये कि वह दूसरों पर वाग्बाण न छोड़े। बाण से बिंधा हुआ वृक्ष और फरसे से काटा हुआ जंगल फिर पनप जाता है, परंतु वाणी द्वारा जो भयानक कटु वचन निकलता है, उससे घायल हुए हृदय का घाव फिर नहीं भरता।
इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत सम्भव पर्व में ययात्युपाख्यानविषयक उन्यासीवाँ अध्याय पूरा हुआ।