चतु:सप्ततितम (74) अध्याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: चतु:सप्ततितम अध्याय: श्लोक 123-129 का हिन्दी अनुवाद
जनमेजय! अपनी प्यारी रानी से ऐसी बात कहकर राजर्षि दुष्यन्त ने अन्न, पान और वस्त्र आदि के द्वारा उसका आदर-सत्कार किया। तदनन्तर वे अपनी माता रथन्तर्या के पास जाकर बोले- ‘मां! यह मेरा पुत्र है, जो वन में उत्पन्न हुआ है। यह तुम्हारे शोक का नाश करने वाला होगा। शुभे! तुम्हारे इस पौत्र को पाकर आज मैं पितृ-ऋण से मुक्त हो गया। महाभागे! यह तुम्हारी पुत्र-वधु है। महर्षि विश्वामित्र ने इसे जन्म दिया और महात्मा कण्व ने पाला है। तुम शकुन्तला पर कृपा दृष्टि रखो।’ पुत्र की यह बात सुनकर राजमाता रथन्तर्या ने पौत्र को हृदय से लगा लिया और अपने चरणों में पड़ी हुई शकुन्तला को दोनों भुजाओं में भरकर वे हर्ष के आंसू बहाने लगीं। साथ ही पौत्र के शुभ लक्षणों की ओर संकेत करती हुई बोलीं- ‘विशालाक्षि! तेरा पुत्र चक्रवर्ती सम्राट होगा। तेरे पति को तीनों लोकों पर विजय प्राप्त हो। सुन्दरि! तुम्हें सदा दिव्य भोग प्राप्त होते रहें।’ यह कहकर राजमाता रथन्तर्या अत्यन्त हर्ष से विभोर हो उठी। उस समय राजा ने शास्त्रोक्त विधि के अनुसार समस्त आभूषणों से विभूषित शकुन्तला को पटरानी के पद पर अभिषिक्त करके ब्राह्मणों तथा सैनिकों को बहुत धन अर्पित किया। तदनन्तर महाराज दुष्यन्त ने शकुन्तलाकुमार का नाम भरत रखकर उसे युवराज के पद पर अभिषिक्त कर दिया। फिर भरत को राज्य का भार सौंपकर महाराज दुष्यन्त कृतकृत्य हो गये। वे पूरे सौ वर्षों तक राज्य भोगकर विविध प्रकार के दान दे अन्त में स्वर्गलोक सिधारे। महात्मा राजा भरत का विख्यात चक्र[1] सब ओर घूमने लगा। वह अत्यन्त प्रकाशमान, दिव्य और अजेय था। वह महान् चक्र अपनी भारी आवाज से सम्पूर्ण जगत् को प्रतिध्वनित करता चलता था। उन्होंने सब राजाओं को जीतकर अपने अधीन कर लिया तथा सत्पुरुषों के धर्म का पालन और उत्तम यश का उपार्जन किया। महाराज भरत समस्त भूमण्डल में विख्यात, प्रतापी एवं चक्रवर्ती सम्राट थे। उन्होंने देवराज इन्द्र की भाँति बहुत-से यज्ञों का अनुष्ठान किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ चक्र के विशेषणों से यहाँ यही अनुमान होता है कि भरत के पास सुदर्शन चक्र के समान ही कोई चक्र था।
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