सप्तषष्टितम (67) अध्याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: सप्तषष्टितम अध्याय: श्लोक 135-154 का हिन्दी अनुवाद
वसुषेण (कर्ण) बड़ा बुद्धिमान् और सत्य पराक्रमी था। जिस समय वह जप में लगा होता, उस महात्मा के पास ऐसी कोई वस्तु नहीं थी, जिसे वह ब्राह्मणों के मांगने पर न दे डाले। भूतभावन इन्द्र ने अपने पुत्र अर्जुन के हित के लिये ब्राह्मण का रूप धारण करके वीर कर्ण से दोनों कुण्डल तथा उसके शरीर के साथ उत्पन्न हुआ कवच मांगा। कर्ण ने अपने शरीर में चिपके हुए कवच और कुण्डलों को उधेड़ कर दे दिया। इन्द्र ने विस्मित होकर कर्ण को एक शक्ति प्रदान की और कहा- ‘दुर्धर्ष वीर! तुम देवता, असुर, मनुष्य, गन्धर्व, नाग और राक्षसों में से जिस पर भी इस शक्ति को चलाओगे, वह एक व्यक्ति निश्चय ही अपने प्राणों से हाथ धो बैठेगा। पहले कर्ण का नाम इस पृथ्वी पर वसुषेण था। फिर कवच और कुण्डल काटने के कारण वैकर्तन नाम से प्रसिद्ध हुआ। जो महायशस्वी वीर कवच धारण किये हुए ही उत्पन्न हुआ, वह पृथा का प्रथम पुत्र कर्ण नाम से ही सर्वत्र विख्यात था। महाराज! वह वीर सूत कुल में पाला-पोसा जाकर बड़ा हुआ था। नरेश्रेष्ठ कर्ण सम्पूर्ण शस्त्र धारियों में श्रेष्ठ था। वह दुर्योधन का मन्त्री और मित्र होने साथ ही उसके शत्रुओं का नाश करने वाला था। राजन्! तुम कर्ण को साक्षात सूर्यदेव का सर्वोत्तम अंश जानो। देवताओं के भी देवता जो सनातन पुरुष भगवान नारायण हैं, उन्हीं के अंश स्वरूप प्रतापी वसुदेव नन्दन श्रीकृष्ण मनुष्यों में अवतीर्ण हुए थे। महाबली बलदेव शेषनाग के अंश थे। राजन्! महातेजस्वी प्रद्युम्न को तुम सनत्कुमार का अंश जानो। इस प्रकार वसुदेव जी के कुल में बहुत से दूसरे-दूसरे नरेन्द्र उपन्न हुए, जो देवताओं के अंश थे। वे सभी अपने कुल की वृद्धि करने वाले थे। महाराज! मैंने अप्सराओं के जिस समुदाय का वर्णन किया है, उसका अंश भी इन्द्र के आदेश से इन पृथ्वी पर उत्पन्न हुआ था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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