एकत्रिंश (31) अध्याय: आदि पर्व (आस्तीक पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: एकत्रिंश अध्याय: श्लोक 18-35 का हिन्दी अनुवाद
उग्रश्रवा जी कहते हैं- इसी समय शुभलक्षणा दक्षकन्या कल्याणमयी विनता देवी, जो उत्तम यश से सुशोभित थी, पुत्र की कामना से तपस्यापूर्वक ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन करने लगी। ऋतुकाल आने पर जब वह स्नान करके शुद्ध हुई, तब अपने स्वामी की सेवा में गयी। उस समय कश्यप जी ने उससे कहा- ‘देवि! तुम्हारा यह अभीष्ट समारम्भ अवश्य सफल होगा। तुम ऐसे दो पुत्रों को जन्म दोगी, जो बड़े वीर और तीनों लोकों पर शासन करने की शक्ति रखने वाले होंगे। वाखिल्यों की तपस्या तथा मेरे संकल्प से तुम्हें दो परम सौभाग्यशाली पुत्र प्राप्त होंगे, जिनकी तीनों लोकों में पूजा होगी।' इतना कहकर भगवान कश्यप ने पुनः विनता से कहा- 'देवि! यह गर्भ महान अभ्युदयकारी होगा, अतः इसे सावधानी से धारण करो। तुम्हारे ये दोनों पुत्र सम्पूर्ण पक्षियों के इन्द्र पद का उपभोग करेंगे। स्वरूप से पक्षी होते हुए भी इच्छानुसार रूप धारण करने में समर्थ और लोक-सम्भावित वीर होंगे।' विनता से ऐसा कहकर प्रसन्न हुए प्रजापति ने शतक्रतु इन्द्र से कहा- ‘पुरन्दर! ये दोनों महापराक्रमी भ्राता तुम्हारे सहायक होंगे। तुम्हें इनसे कोई हानि नहीं होगी। इन्द्र! तुम्हारा संताप दूर हो जाना चाहिये। देवताओं के इन्द्र तुम्ही बने रहोगे। एक बात ध्यान रखना- आज से फिर कभी तुम घमंड में आपके ब्रह्मवादी महात्माओं का उपहास और अपमान न करना; क्योंकि उनके पास वाणीरूप अमोघ वज्र है तथा वे तीक्ष्ण कोप वाले होते हैं’। कश्यप जी के ऐसा कहने पर देवराज इन्द्र निःशंक होकर स्वर्गलोक में चले गये। अपना मनोरथ सिद्ध होने से विनता भी बहुत प्रसन्न हुई। उसने दो पुत्र उत्पन्न किये- अरुण और गरुड़। जिसके अंग कुछ अधूरे रह गये थे, वे अरुण कहलाते हैं, वे ही सूर्यदेव के सारथि बनकर उनके आगे-आगे चलते हैं। भृगुनन्दन! दूसरे पुत्र गरुड़ का पक्षियों के इन्द्र-पद पर अभिषेक किया गया। अब तुम गरुड़ का यह महान पराक्रम सुनो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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