सप्तविंशत्यधिकद्विशततम (227) अध्याय: आदि पर्व (खाण्डवदाह पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: सप्तविंशत्यधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 20-38 का हिन्दी अनुवाद
वे सभी प्राणी प्राणशून्य होकर साक्षात् काल से मारे हुए की भाँति आग में गिर पड़ते थे। वे वन के किनारे ही या दुर्गम स्थानों में हों, कहीं भी उन्हें शान्ति नहीं मिलती थी। पितरों और देवताओं के लोक में भी खाण्डववन के दाह की गर्मी पहुँचने लगी। बहुतेरे प्राणियों के समुदाय कातर ही जोर-जोर से चीत्कार करने लगे हाथी, मृग और चीते भी रोदन करते थे। उनके आर्तनाद ने गंगा तथा समुद्र के भीतर रहने वाले मत्स्य भी थर्रा उठे। उस वन में रहने वाले जो विद्याधर जाति के लोग थे, उनकी भी वही दशा थी। महाबाहो! उस समय कोई श्रीकृष्ण और अर्जुन की ओर आँख उठाकर देख भी नहीं सकता था; फिर युद्ध करने की तो बात ही क्या है। जो कोई राक्षस, दानव और नाग वहाँ एक साथ संघ बनाकर निकलते थे, उन सबको भगवान् श्रीहरि चक्र द्वारा मार देते थे। वे तथा दूसरे विशालकाय प्राणी चक्र के वेग से शरीर और मस्तक छिन्न-भिन्न हो जाने के कारण निर्जीव ही प्रज्वलित आग में गिर पड़ते थे। इस प्रकार वन जन्तुओं के मांस, रूधिर और मेदे के समूह से अत्यन्त तृृप्त हो अग्निदेव ऊपर आकाशचारी होकर धूमरहित हो गये। उनकी आँखे चमक उठीं, जिह्वा में दीप्ति आ गयी और उनका विशाल मुख भी अत्यन्त तेज से प्रकाशित होने लगा। उनके चमकीले केश ऊपर की ओर उठे हुए थे, आँखे पिंगलवर्ण की थी और वे प्राणियों के मेदे का रस पी रहे थे। श्रीकृष्ण और अर्जुन का दिया हुआ वह इच्छानुसार भोजन पाकर अग्निदेव बड़े प्रसन्न और पूर्ण तृप्त हो गये। उन्हें बड़ी शान्ति मिली। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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