महाभारत आदि पर्व अध्याय 222 श्लोक 17-35

द्वाविंशत्यधिकद्विशततम (222) अध्‍याय: आदि पर्व (खाण्डवदाह पर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: द्वाविंशत्यधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 17-35 का हिन्दी अनुवाद


राजन्! सुना जाता है, प्राचीनकाल में इन्द्र के समान बल और पराक्रम से सम्पन्न श्वेतकि नाम के राजा थे। उस समय उनके जैसा यज्ञ करने वाला, दाता और बुद्धिमान् दूसरा कोई नहीं था। उन्होंने पर्याप्त दक्षिणा वाले अनेक बड़े-बड़े यज्ञों का अनुष्ठान किया था। राजन्! प्रतिदिन उनके मन में यज्ञ और दान के सिवा दूसरा कोई विचार ही नहीं उठता था। वे यज्ञकर्मों के आरम्भ और नाना प्रकार के दानों में ही लगे रहते थे। इस प्रकार वे बुद्धिमान् नरेश ऋत्विजों के साथ यज्ञ किया करते थे। यज्ञ करते-करते उनके ऋत्विजों की आँखे धूएँ से व्याकुल हो उठी। दीर्घकाल तक आहुति देते-देते वे सभी खिन्न हो गये थे। इसलिये राजा को छोड़कर चले गये। तब राजा ने उन ऋत्विजों को पुनः यज्ञ के लिये प्रेरित किया। परंतु जिनके नेत्र दुखने लगे थे, वे ऋत्विज उनके यज्ञ में नहीं आये। तब राजा ने उनकी अनुमति लेकर दूसरे ब्राह्मणों को ऋत्विज बनाया और उन्हीं के साथ अपने चालू किये हुए यज्ञ को पूरा किया। इस प्रकार यशपरायण राजा के मन में किसी समय यह संकल्प उठा कि मैं सौ वर्षों तक चालू रहने वाला एक सत्र प्रारम्भ करूँ; परंतु उन महामना को वह यज्ञ आरम्भ करने के लिये ऋत्विज ही नहीं मिले। उन महायशस्वी नरेश ने अपने सुहृदों को साथ लेकर इस कार्य के लिये बहुत बड़ा प्रयत्न किया। पैरों पर पड़कर, सान्त्वनापूर्ण वचन कहकर और इच्छानुसार दान देकर बार-बार निरालस्यभाव से ऋत्विजों को मनाया, उनसे यज्ञ कराने के लिये अनुनय-विनय की; परंतु उन्होंने अमित तेजस्वी नरेश के मनोरथ को सफल नहीं किया।

तब उन राजर्षि ने कुछ कुपित होकर आश्रमवासी महर्षियों से कहा- ‘ब्राह्मणों! यदि मैं पतित होऊँ और आप लोगों की शुश्रूषा से मुँह मोड़ता होऊँ तो निन्दित होने के कारण आप सभी ब्राह्मणों के द्वारा शीघ्र की त्याग देने योग्य हूँ, अन्यथा नहीं; अतः यज्ञ कराने के लिये मेरी इस बढ़ी हुई श्रद्धा में आप लोगों को बाधा नहीं डालनी चाहिये। विप्रवरो! इस प्रकार बिना किसी अपराध के मेरा परित्याग करना आप लोगों के लिये कदापि उचित नहीं है। मैं आपकी शरण में हूँ। आप लोग कृपापूर्वक मुझ पर प्रसन्न होइये। श्रेष्ठ द्विजगण! मैं कार्यार्थी होने के कारण सान्त्वना देकर दान आदि देने की बात कहकर यथार्थ वचनों द्वारा आप लोगों को प्रसन्न करके आपकी सेवा में अपना कार्य निवेदन कर रह हूँ। द्विजोत्तमो! यदि आप लोगों ने द्वेषवश मुझे त्याग दिया तो मैं यह यज्ञ कराने के लिये दूसरे ऋत्विजों के पास जाऊँगा।’ इतना कहकर राजा चुप हो गये। परंतप जनमेजय! जब वे ऋत्विज राजा का यज्ञ कराने के लिये उद्यत न हो सके, तब वे रुष्ट होकर उन नृपश्रेष्ठ से बोले- ‘भूपालशिरोमणे! आपके यज्ञकर्म तो निरन्तर चलते रहते हैं। अतः सदा कर्म में लगे रहने के कारण हम लोग थक गये हैं, पहले के परिश्रम से हमारा कष्ट बढ़ गया है। ऐसी दशा में बुद्धिमोहित होने के कारण उतावले होकर आप चाहें तो हमारा त्याग कर सकते है। निष्पाप नरेश! आप तो भगवान रुद्र के समीप जाइये। अब वे ही आपका यज्ञ करायेंगे।’

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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