द्वाविंशत्यधिकद्विशततम (222) अध्याय: आदि पर्व (खाण्डवदाह पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: द्वाविंशत्यधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 17-35 का हिन्दी अनुवाद
तब उन राजर्षि ने कुछ कुपित होकर आश्रमवासी महर्षियों से कहा- ‘ब्राह्मणों! यदि मैं पतित होऊँ और आप लोगों की शुश्रूषा से मुँह मोड़ता होऊँ तो निन्दित होने के कारण आप सभी ब्राह्मणों के द्वारा शीघ्र की त्याग देने योग्य हूँ, अन्यथा नहीं; अतः यज्ञ कराने के लिये मेरी इस बढ़ी हुई श्रद्धा में आप लोगों को बाधा नहीं डालनी चाहिये। विप्रवरो! इस प्रकार बिना किसी अपराध के मेरा परित्याग करना आप लोगों के लिये कदापि उचित नहीं है। मैं आपकी शरण में हूँ। आप लोग कृपापूर्वक मुझ पर प्रसन्न होइये। श्रेष्ठ द्विजगण! मैं कार्यार्थी होने के कारण सान्त्वना देकर दान आदि देने की बात कहकर यथार्थ वचनों द्वारा आप लोगों को प्रसन्न करके आपकी सेवा में अपना कार्य निवेदन कर रह हूँ। द्विजोत्तमो! यदि आप लोगों ने द्वेषवश मुझे त्याग दिया तो मैं यह यज्ञ कराने के लिये दूसरे ऋत्विजों के पास जाऊँगा।’ इतना कहकर राजा चुप हो गये। परंतप जनमेजय! जब वे ऋत्विज राजा का यज्ञ कराने के लिये उद्यत न हो सके, तब वे रुष्ट होकर उन नृपश्रेष्ठ से बोले- ‘भूपालशिरोमणे! आपके यज्ञकर्म तो निरन्तर चलते रहते हैं। अतः सदा कर्म में लगे रहने के कारण हम लोग थक गये हैं, पहले के परिश्रम से हमारा कष्ट बढ़ गया है। ऐसी दशा में बुद्धिमोहित होने के कारण उतावले होकर आप चाहें तो हमारा त्याग कर सकते है। निष्पाप नरेश! आप तो भगवान रुद्र के समीप जाइये। अब वे ही आपका यज्ञ करायेंगे।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज