महाभारत आदि पर्व अध्याय 208 श्लोक 18-33

अष्‍टाधिकद्विशततम (208) अध्‍याय: आदि पर्व (विदुरागमन-राज्‍यलम्‍भ पर्व )

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महाभारत: आदि पर्व: अष्‍टाधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 18-33 का हिन्दी अनुवाद


तदनन्‍तर सुद्दढ़ पराक्रमी दोनों भाई सुन्‍द और उपसुन्द भगवान् ब्रह्मा को उपस्थित देख हाथ जोड़कर खड़े हो गये और एक साथ भगवान् ब्रह्मा से बोले- ‘भगवन्! यदि आप हमारी तपस्‍या से प्रसन्‍न हैं तो हम दोनों सम्‍पूर्ण मायाओं के ज्ञाता, अस्त्र-शस्त्रों के विद्वान्, बलवान्, इच्‍छानुसार रुप धारण करने वाले और अमर हो जायं।’ ब्रह्मा जी ने कहा- अमरत्व के सिवा तुम्‍हारी मांगी हुई सारी वस्‍तुएं प्राप्‍त होंगी। तुम मृत्‍यु का कोई दूसरा ऐसा विधान मांगो लो, जो तुम्‍हें देवताओं के समान बनाये रख सके। हम तीनों लोकों के ईश्‍वर होंगे, ऐसा संकल्‍प करके जो तुम लोगों ने यह बड़ी भारी तपस्‍या प्रारम्‍भ की थी, इसीलिये तुम लोगों को अमर नहीं बनाया जाता; क्‍योंकि अमरत्‍व तुम्‍हारी तपस्‍या का उद्देश्‍य नहीं था। दैत्‍यपतियों! तुम दोनों ने त्रिलोक पर विजय पाने के लिये ही इस तपस्‍या का आश्रय लिया था, इसीलिये तुम्‍हारी अमरत्‍व विषय एक कामना की पूर्ति मैं नहीं कर रहा हूँ। सुन्‍द और उपसुन्‍द बोले- पितामह! तब यह वर दीजिये कि हम दोनों में से एक-दूसरे को छोड़कर तीनों लोकों में जो कोई भी चर या अचर भूत हैं, उनसे हमें मृत्‍यु का भय न हो।

ब्रह्मा जी ने कहा- तुमने जैसी प्रार्थना की है, तुम्‍हारी वह मुंहमांगी वस्‍तु तुम्‍हें अवश्‍य दूंगा। तुम्‍हारी मृत्‍यु का विधान ठीक इसी प्रकार होगा। नारद जी कहते हैं- युधिष्ठिर! उस समय उन दोनों दैत्‍यों को यह वरदान देकर और उन्‍हें तपस्‍या से निवृत करके ब्रह्मा जी ब्रह्मलोक को चले गये। फिर वे दोनों भाई दैत्‍यराज सुन्‍द और उपसुन्‍द यह अभीष्‍ट वर पाकर सम्‍पूर्ण लोकों के लिये अवध्‍य हो पुन: अपने घर को ही लौट गये। वरदान पाकर पूर्ण काम होकर लौटे हुए उन दोनों मनस्‍वी वीरों को देखकर उनके सभी सगे-सम्‍बन्‍धी बड़े प्रसन्‍न हुए। तदनन्‍तर उन्‍होंने जटाएं कटाकर मस्‍तक पर मुकुट धारण कर लिये और बहुमूल्‍य आभूषण तथा निर्मल वस्‍त्र धारण करके ऐसा प्रकाश फैलाया, मानो असमय में ही चांदनी छिटक गयी हो और सर्वदा दिन-रात एकरस रहने लगी हो। उनके सभी सगे-सम्‍बन्‍धी सदा आमोद-प्रमोद में डूबे रहते थे। प्रत्‍येक घर में सर्वदा ‘खाओ, भोग करो, लुटाओ, मौज करो, गाओ और पीओ’ का शब्‍द गूंजता रहता था। जहाँ-तहाँ जोर-जोर से तालियां पीटने की ऊंची आवाज से दैत्‍यों का वह सारा नगर हर्ष और आनन्‍द में मग्न जान पड़ता था। इच्‍छानुसार रुप धारण करने वाले वे दैत्‍य वर्षों तक भाँति-भाँति के खेल-कूद और आमोद-प्रमोद करने में लगे रहे; किंतु वह सारा समय उन्‍हें एक दिन के समान लगा।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्‍तर्गत विदुरागमन-राज्‍यलम्‍भ पर्व में सुन्‍दोपाख्‍यान विषयक दौ सौ आठवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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