सप्ताशीत्यधिकशततम (187) अध्याय: आदि पर्व (स्वयंवर पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: सप्ताशीत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 16-28 का हिन्दी अनुवाद
अर्जुन को देखकर शत्रुसूदन द्रुपद के हर्ष की सीमा न रही। उन्होंने अपनी सेना के साथ उनकी सहायता करने का निश्चय किया। उस समय जब महान् कोलाहल बढ़ने लगा, धर्मात्माओं में श्रेष्ठ युधिष्ठिर पुरुषोत्तम नकुल और सहदेव को साथ लेकर डेरे पर ही चले गये। लक्ष्य को बींधकर धरती पर गिरा देख इन्द्र के तुल्य पराक्रमी अर्जुन पर दृष्टि डालकर हाथ में सुन्दर श्वेत फूलों की जयमाला लिये द्रौपदी मन्द-मन्द मुस्कराती हुई कुन्तीकुमार के समीप गयी। उसका रुप जिन्होंने बार-बार देखा था, उनके लिये भी वह नित्य नयी-सी जान पड़ती थी। वह द्रुपदकुमारी बिना हंसी के भी हंसती-सी प्रतीत होती थी। मद सेवन के बिना भी (आन्तरिक अनुराग-सूचक) भावों के द्वारा लड़खड़ाती-सी चलती थी और बिना बोले भी केवल दृष्टि से ही बातचीत करती-सी जान पड़ती थी। निकट जाकर राजकुमारी द्रौपदी ने वहाँ जुटे हुए समस्त राजाओं के समक्ष उन सबकी उपेक्षा करके सहसा वह माला अर्जुन के गले में डाल दी और विनयपूर्वक खड़ी हो गयी। जैसे शची ने देवराज इन्द्र का, स्वाहा ने अग्निदेव का, लक्ष्मी ने भगवान् विष्णु का, उषा ने सूर्यदेव का, रति ने कामदेव का, गिरिराजकुमारी उमा ने महेश्वर का, विेदेहराजनन्दिनी सीता ने श्रीराम का तथा भीमकुमारी दमयन्ती ने नृपश्रेष्ठ नल का वरण किया था, उसी प्रकार द्रौपदी ने पाण्डुपुत्र अर्जुन का वरण कर लिया। अद्भुत कर्म करने वाले अर्जुन इस प्रकार उस स्वंयवर सभा में (स्त्रीरत्न द्रौपदी को जीतकर) उसे अपने साथ ले रंगभूमि से बाहर निकले)। पत्नी द्रौपदी उनके पीछे-पीछे चल रही थी। उस समय उपस्थित ब्राह्मणों ने उनका बड़ा सत्कार किया। इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्तर्गत स्वयंवर पर्व में लक्ष्यछेदन विषयक एक सौ सतासीवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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