एकोनसप्तधिकशततम (169) अध्याय: आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: एकोनसप्तधिकशततम अध्याय: श्लोक 19-37 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! अर्जुन की यह बात सुनकर अंगारपर्ण क्रोधित हो गया और धनुष नवाकर विषैले साँपों की भाँति तीखे बाण छोड़ने लगा। यह देख पाण्डुनन्दन धनंजय ने तुरंत ही मशाल घुमाकर और उत्तम ढाल से रोककर उसके सभी बाण व्यर्थ कर दिये। अर्जुन ने कहा- गन्धर्व! जो अस्त्रविद्या के विद्वान हैं, उन पर तुम्हारी यह घुड़की नहीं चल सकती। अस्त्रविद्या के मर्मज्ञों पर फैलायी हुई तुम्हारी यह माया फेन की तरह विलीन हो जायगी। गन्धर्व! मैं जानता हूँ कि सम्पूर्ण गन्धर्व मनुष्यों से अधिक शक्तिशाली होते हैं, इसलिये मैं तुम्हारे साथ माया से नहीं, दिव्यास्त्र से युद्ध करुंगा। गन्धर्व! यह आग्नेय अस्त्र पूर्वकाल में इन्द्र के माननीय गुरु बृहस्पति जी ने भरद्वाज मुनि को दिया था। भरद्वाज से इसे अग्निवेश्य ने और अग्निवेश्य से मेरे गुरु द्रोणाचार्य ने प्राप्त किया है। फिर विप्रवर द्रोणाचार्य ने यह उत्तम अस्त्र मुझे प्रदान किया। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! ऐसा कहकर पाण्डुनन्दन अर्जुन ने कुपित हो गन्धर्व पर वह प्रज्वलित आग्नेय अस्त्र चला दिया। उस अस्त्र ने गन्धर्व के रथ को जलाकर भस्म कर दिया। वह रथहीन गन्धर्व व्याकुल हो गया और अस्त्र के तेज से मूढ़ होकर नीचे मुंह किये गिरने लगा। महाबली अर्जुन ने उसके फूल की मालाओं से सुशोभित केश पकड़ लिये और घसीटकर अपने भाइयों के पास ले आये। अस्त्र के आघात से वह गन्धर्व अचेत हो गया था। उस गन्धर्व की पत्नी का नाम कुम्भीनसी था। उसने अपने पति के जीवन की रक्षा के लिये महाराज युधिष्ठिर की शरण ली। गन्धर्वी बोली- महाभाग! मेरी रक्षा कीजिये और मेरे इन पतिदेव को आप छोड़ दीजिये। प्रभो! मैं गन्धर्वपत्नी कुम्भीनसी आपकी शरण में आयी हूँ। युधिष्ठिर ने कहा- तात! शत्रुसूदन अर्जुन! यह गन्धर्व युद्ध में हार गया और अपना यश खो चुका। अब स्त्री इसकी रक्षिका बनकर आयी है। यह स्वयं कोई पराक्रम नहीं कर सकता। ऐसे दीन-हीन शत्रु को कौन मारता है ? इसे जीवित छोड़ दो। अर्जुन बोले- गन्धर्व! जीवन धारण करो। जाओ, अब शोक न करो। इस समय कुरुराज युधिष्ठिर तुम्हें अभयदान दे रहे हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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