महाभारत आदि पर्व अध्याय 154 श्लोक 10-16

चतुष्‍पंचादशधिकशततम (154) अध्‍याय: आदि पर्व (हिडिम्बवध पर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: चतुष्‍पंचादशधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 10-16 का हिन्दी अनुवाद


महाभागे! मुझे अपने इस पुत्र से, जो मेरे मनोनीत पति हैं, मिलने का अवसर दीजिये। मैं इन देवस्‍वरुप स्‍वामी को लेकर अपने अभीष्‍ट स्‍थान पर जाऊंगी और पुन: निश्चित समय पर इन्‍हें आपके समीप ले आऊंगी। शुभे! आप मेरा विश्‍वास कीजिये। आप अपने मन से जब-जब मेरा स्‍मरण करेंगे, तब-तब सदा ही (सेवा में उपस्थित हो) मैं आप लोगों को अभीष्ट स्‍थानों में पहुँचा दिया करुंगी। आर्ये! मैं न तो यातुधानी हूँ और न निशाचरी ही हूँ। महारानी! मैं राक्षस जाति की सुशीला कन्‍या हूँ और युवावस्‍था से सम्‍पन्‍न हूँ। मेरे हदय का संयोग आपके पुत्र भीमसेन के साथ हुआ है। मैं वृकोदर को सामने रखकर आप सब लोगों की सेवा में उपस्थित रहूंगी। आप लोग असावधान हों, तो भी मैं पूरी सावधानी रखकर निरन्‍तर आपकी सेवा में संलग्‍न रहूंगी। आपको संकटों से बचाऊंगी। दुर्गम एवं विषम स्‍थानों में यदि आप शीघ्रतापूर्वक अ‍भीष्‍ट लक्ष्‍य तक जाना चाहते हों तो मैं आप सब लोगों को अपनी पीठ पर वहाँ पहुँचाऊंगी। आप लोग मुझ पर कृपा करें, जिससे भीमसेन मुझे स्‍वीकार कर लें। जिस उपाय से भी आपत्ति से छुटकारा मिले और प्राणों की रक्षा हो सकें, धर्म का अनुसरण करने वाले पुरुष को वह सब स्‍वीकार करके उस उपाय को काम में लाना चाहिये।

जो आपत्तिकाल में धर्म को धारण करता है, वही धर्मात्‍माओं में श्रेष्ठ है। धर्मपालन में संकट उ‍पस्थित होना ही धर्मात्‍मा पुरुषों के लिये आपत्ति कही जाती है। पुण्‍य ही प्राणों को धारण करता हैं, इसलिये पुण्‍य प्राणदाता कहलाता है; अत: जिस-जिस उपाय से धर्म का आवरण हो सके; उसके करने में कोई निन्‍दा की बात नही है। मैं महती कामवेदना से पीड़ित एक नारी हूं, अत: आप मेरी रक्षा कीजिये। साधु पुरुष धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की‍ सिद्धि के सभी पुरुषों के लिये शरणागतों पर दया करते हैं। धर्मानुरागी महर्षि दया को ही श्रेष्ठ धर्म मानते हैं। मैं दिव्‍य ज्ञान से भूत और भविष्‍य की घटनाओं को देखती हूँ। अत: आप लोगों के कल्‍याण की बात बता रही हूँ। यहाँ से थोड़ी ही दूर पर एक उत्तम सरोवर है। आप लोग आज वहाँ जाकर उस सरोवर में स्‍नान करके वृक्ष के नीचे विश्राम करें। कुछ दिन बाद कमलनयन व्यास जी का दर्शन पाकर आप लोग शोकमुक्‍त हो जायंगे। दुर्योधन के द्वारा आप लोगों का हस्तिनापुर से निकाला जाना, वारणावत नगर में जलाया जाना और विदुर जी के प्रयत्‍न से आप सब लोगों की रक्षा होनी, आदि बातें उन्‍हें ज्ञान-दृष्टि से ज्ञात हो गयी हैं।

वे महात्‍मा व्‍यास शालिहोत्र मुनि के आश्रम में निवास करेंगे। उनके आश्रम का वह पवित्र वृक्ष सर्दी, गर्मी और वर्षा को अच्‍छी तरह सहने वाला हैं। वहाँ केवल जल पी लेने से भूख-प्‍यास दूर हो जाती है। शालिहोत्र मुनि‍ ने अपनी तपस्‍या द्वारा पूर्वोक्‍त सरोवर और वृक्ष का निर्माण किया है। वहाँ कादम्‍ब, सारस, हंस, कुररी और कुरर आदि पक्षी संगीत की ध्‍वनि से मिश्रित मधुर गीत गाते रहते हैं। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! हिडिम्बा का यह वचन सुनकर कुन्‍ती देवी ने सम्‍पूर्ण शास्‍त्रों में पारंगत परम बुद्धिमान युधिष्ठिर से इस प्रकार कहा। कुन्‍ती बोली- धर्मात्‍माओं में श्रेष्‍ठ भारत! मैं जो कहती हूं, उसे तुम सुनो। यदि इसकी हार्दिक भावना भीमसेन के प्रति दूषित हो, तो भी यह उनका क्‍या बिगाड़ लेगी? अत: यदि तुम्‍हारी सम्‍मति हो तो यह संतान के लिये काल तक मेरे वीर पुत्र पाण्‍डुनन्‍दन भीमसेन की सेवा में रहे। युधि‍ष्ठिर बोले- हिडिम्‍बे! तुम जैसा कह रही हो, वह सब ठीक है; इसमें संशय नहीं है। परंतु सुमध्‍यमे! मैं जैसे कहूं, उसी प्रकार तुम्‍हें सत्‍य पर स्थिर रहना चाहिये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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