महाभारत आदि पर्व अध्याय 135 श्लोक 16-33

पंचत्रिंशदधिकशततम (135) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: पंचत्रिंशदधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 16-33 का हिन्दी अनुवाद


दुर्योधन बोला- शत्रुदमन! तुम मेरे साथ उत्तम भोग भोगो। अपने भाई-बन्‍धुओं का प्रिय करो और समस्‍त शत्रुओं के मस्‍तक पर पैर रखो। वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! उस समय अर्जुन ने अपने-आपको कर्ण द्वारा तिरस्‍कृत-सा मानकर दुर्योधन आदि सौ भाइयों के बीच में अविचल-से खड़े हुए कर्ण को सम्‍बोधित करके कहा। अर्जुन बोले- कर्ण! बिना बुलाये आने वालों और बिना बुलाये बोलने वालों को जो (निन्‍दनीय) लोक प्राप्त होते हैं, मेरे द्वारा मारे जाने पर तुम उन्‍हीं लोकों में जाओगे।

कर्ण ने कहा- अर्जुन! यह रंगमण्‍डप तो सबके लिये साधारण है, इसमें तुम्‍हारा क्‍या लगा है? जो बल और पराक्रम में श्रेष्ठ होते हैं, वे ही राजा कहलाने योग्‍य हैं। धर्म भी बल का ही अनुसरण करता है। भारत! आक्षेप करना तो दुर्बलों का प्रयास है। इससे क्‍या लाभ है? साहस हो तो बाणों से बाचचीत करो। मैं आज तुम्‍हारे गुरु के सामने ही बाणों द्वारा तुम्‍हारा सिर धड़ से अलग किये देता हूँ।

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- राजन्! तदनन्‍तर शत्रुओं के नगर को जीतने वाले कुन्‍तीनन्‍दन अर्जुन आचार्य द्रोण की आज्ञा ले तुरंत अपने भाइयों से गले मिलकर युद्ध के लिये कर्ण की ओर बढ़े। तब भाइयों सहित दुर्योधन ने भी धनुष-बाण ले युद्ध के लिये तैयार खड़े हुए कर्ण का आलिंगन किया। उस समय बकपंक्तियों के व्‍याज से हास्‍य की छटा बिखेरने वाले बादलों ने बिजली की चमक, गड़गड़ाहट और इन्‍द्रधनुष के साथ समूचे आकाश को ढक लिया। तत्‍पश्चात् अर्जुन के प्रति स्‍नेह होने के कारण इन्‍द्र को रंगभूमि का अवलोकन करते देख भगवान् सूर्य ने भी अपने समीप बादलों को छिन्न-भिन्न कर दिया। तब अर्जुन मेघ की छाया में छिपे हुए दिखायी देने लगे और कर्ण भी सूर्य की प्रभा से प्रकाशित दीखने लगा। धृतराष्ट्र के पुत्र जिस ओर कर्ण था, उसी ओर खड़े हुए तथा द्रोणाचार्य, कृपाचार्य और भीष्‍म जिधर अर्जुन थे, उस ओर खड़े थे। रंगभूमि के पुरुषों और स्त्रियों में भी कर्ण और अर्जुन को लेकर दो दल हो गये।

कुन्तिभोजकुमारी कुन्‍ती देवी वास्‍तविक रहस्‍य को जानती थीं (कि ये दोनों मेरे ही पुत्र हैं), अत: चिन्‍ता के कारण उन्‍हें मूर्च्‍छा आ गयी। उन्‍हें इस प्रकार मूर्च्‍छा में पड़ी हुई देख सब धर्मों के ज्ञाता विदुर जी ने दासियों द्वारा चन्‍दन मिश्रित जल छिड़कवाकर होश में लाने की चेष्टा की। इससे कुन्‍ती को होश तो आ गया; किंतु अपने दोनों पुत्रों को युद्ध के लिये कवच धारण किये देख वे बहुत घबरा गयीं। उन्‍हें रोकने का कोई उपाय उनके ध्‍यान में नहीं आया। उन दोनों को विशाल धनुष उठाये देख द्वन्‍द्व-युद्ध की नीति-रीति में कुशल और समस्‍त धर्मों के ज्ञाप शरद्वान् के पुत्र कृपाचार्य ने इस प्रकार कहा- ‘कर्ण! ये कुन्‍तीदेवी के सबसे छोटे पुत्र पाण्‍डुनन्‍दन अर्जुन कुरुवंश के रत्न हैं, जो तुम्‍हारे साथ द्वन्‍द्व-युद्ध करेंगे। महाबाहो! इसी प्रकार तुम भी अपने माता-पिता तथा कुल का परिचय दो और उन नरेश के नाम बताओ, जिनका वंश तुमसे विभूषित हुआ है। इसे जान लेने के बाद यह निश्चय होगा कि अर्जुन तुम्‍हारे साथ युद्ध करेंगे या नहीं; क्‍योंकि राजकुमार नीच कुल और हीन आचार-विचार वाले लोगों के साथ युद्ध नहीं करते।’

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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