एकत्रिंशदधिकशततम (131) अध्याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: एकत्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 56-70 का हिन्दी अनुवाद
उस समय द्रोण के दो शिष्य गदा युद्ध में सुयोग्य निकले- दुर्योधन और भीमसेन। ये दोनों सदा एक दूसरे के प्रति मन में क्रोध (स्पर्द्धा) से भरे रहते थे। अश्वत्थामा धनुर्वेद के रहस्यों की जानकारी में सबसे बढ़-चढ़कर हुआ। नकुल और सहदेव दोनों भाई तलवार की मूठ पकड़कर युद्ध करने में अत्यन्त कुशल हुए। वे इस कला में अन्य सब पुरुषों से बढ़-चढ़कर थे। युधिष्ठिर रथ पर बैठकर युद्ध करने में श्रेष्ठ थे। परंतु अर्जुन सब प्रकार की युद्ध-कला में सबसे बढ़कर थे। वे समुद्र पर्यन्त सारी पृथ्वी में रथ यूथपतियों के भी यूथपति के रूप में प्रसिद्ध थे। बुद्धि, मन की एकग्रता, बल और उत्साह के कारण वे सम्पूर्ण अस्त्रविद्याओं में प्रवीण हुए। अस्त्रों के अभ्यास तथा गुरु के प्रति अनुराग में भी अर्जुन का स्थान सबसे ऊंचा था। यद्यपि सबको समान रूप से अस्त्रविद्या का उपदेश प्राप्त होता था तो भी पराक्रमी अर्जुन अपनी विशिष्ट प्रतिभा के कारण अकेले ही समस्त कुमारों में अतिरथी हुए। धृतराष्ट्र के पुत्र बड़े दुरात्मा थे। वे भीमसेन को बल में अधिक और अर्जुन को अस्त्रविद्या में प्रवीण देखकर परस्पर सहन नहीं कर पाते थे। जब सम्पूर्ण धनुर्विद्या तथा अस्त्र-संचालन की कला में वे सभी कुमार सुशिक्षित हो गये, तब नरश्रेष्ठ द्रोण ने उन सबको एकत्र करके उनके अस्त्र ज्ञान की परीक्षा लेने का विचार किया। उन्होंने कारीगरों से एक नकली गीध बनवाकर वृक्ष के अग्रभाग पर रखवा दिया। राजकुमारों को इसका पता नहीं था। आचार्य ने उसी गीध को बींधने योग्य लक्ष्य बताया। द्रोण बोले- तुम सब लोग इस गीध को बींधने के लिये शीघ्र ही धनुष लेकर उस पर बाण चढ़ाकर खड़े हो जाओ। फिर मेरी आज्ञा मिलने के साथ ही इसका सिर काट गिराओ। पुत्रो! मैं एक-एक को बारी-बारी से इस कार्य में नियुक्त करूंगा; तुम लोग बताये अनुसार कार्य करो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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