एकत्रिंशदधिकशततम (131) अध्याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: >एकत्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 39-55 का हिन्दी अनुवाद
एकलव्य ने कहा- वीरो! आप लोग मुझे निषादराज हिरण्यधनु का पुत्र तथा द्रोणाचार्य का शिष्य जानें। मैंने धनुर्वेद में विशेष परिश्रम किया है। वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! वे पाण्डव लोग उस निषाद का यथार्थ परिचय पाकर लौट आये और वन में जो अद्भुत घटना घटी थी, वह सब उन्होंने द्रोणाचार्य से कह सुनायी। जनमेजय! कुन्तीनन्दन अर्जुन बार-बार एकलव्य का स्मरण करते हुए एकान्त में द्रोण से मिलकर प्रेमपूर्वक यों बोले। अर्जुन ने कहा- आचार्य! उस दिन तो आपने मुझ अकेले को हृदय से लगाकर बड़ी प्रसन्नता के साथ यह बात कही थी कि मेरा कोई भी शिष्य तुमसे बढ़कर नहीं होगा। फिर आप का यह अन्य शिष्य निषादराज का पुत्र अस्त्रविद्या में मुझसे बढ़कर कुशल और सम्पूर्ण लोक से भी अधिक पराक्रमी कैसे हुआ? वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! आचार्य द्रोण उस निषाद पुत्र के विषय में दो घड़ी तक कुछ सोचते-विचारते रहे; फिर कुछ निश्चय करके वे सव्यसाची अर्जुन को साथ ले उसके पास गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने एकलव्य को देखा, जो हाथ में धनुष ले निरन्तर बाणों की वर्षा कर रहा था। उसके शरीर पर मैल जम गया था। उसने सिर पर जटा धारणकर रखी थी और वस्त्र के स्थान पर चिथड़े लपेट रखे थे। इधर एकलव्य ने आचार्य द्रोण को समीप आते देख आगे बढ़कर उनकी अगवानी की और उनके चरण पकड़कर पृथ्वी पर माथा टेक दिया। फिर उस निषादकुमार ने अपने को शिष्य रूप से उनके चरणों में समर्पित करके गुरु द्रोण की विधिपूर्वक पूजा की और हाथ जोड़कर उनके सामने खड़ा हो गया। राजन्! तब द्रोणाचार्य ने एकलव्य से यह बात कही- ‘वीर! यदि तुम मेरे शिष्य हो तो मुझे गुरुदक्षिणा दो’। यह सुनकर एकलव्य बहुत प्रसन्न हुआ और इस प्रकार बोला। एकलव्य ने कहा- भगवन्! मैं आपको क्या दूं? स्वयं गुरुदेव ही मुझे इसके लिये आज्ञा दें। ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ आचार्य! मेरे पास कोई ऐसी वस्तु नहीं, जो गुरु के लिये अदेय हो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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