महाभारत आदि पर्व अध्याय 129 श्लोक 58-67

एकोनत्रिंशदधिकशततम (129) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: एकोनत्रिंशदधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 58-67का हिन्दी अनुवाद


यह सुनकर समस्‍त क्षत्रियों का संहार करने वाले महात्‍मा परशुराम उनसे यों बोले- ‘द्विजश्रेष्ठ! तुम्‍हारा स्‍वागत है। तुम जो कुछ भी चाहते हो, मुझसे कहो।’ उनके इस प्रकार पूछने पर भरद्वाजकुमार द्रोण ने नाना प्रकार के धन-रत्नों का दान करने की इच्‍छा वाले, योद्धाओं में श्रेष्ठ परशुराम से कहा- ‘महान् व्रत का पालन करने वाले महर्षे! मैं आपसे ऐसे धन की याचना करता हूं, जिसका कभी अन्‍त न हो’।

परशुराम जी बोले- तपोधन! मेरे पास यहाँ जो कुछ सुवर्ण तथा अन्‍य प्रकार का धन था, वह सब मैंने ब्राह्मणों को दे दिया। इसी प्रकार ग्राम और नगरों की पंक्तियों से सुशोभित होने वाली समुद्र पर्यन्‍त यह सारी पृथ्‍वी महर्षि कश्‍यप को दे दी है। अब मेरा यह शरीर मात्र बचा है। साथ ही नाना प्रकार के बहुमूल्‍य अस्त्र-शस्त्रों का ज्ञान अवशिष्ट है। अत: तुम अस्त्र-शस्त्रों का ज्ञान अथवा यह शरीर मांग लो। इसे देने के लिये मैं सदा प्रस्‍तुत हूँ। द्रोण! बोलो, मैं तुम्‍हे क्‍या दूं? शीघ्र उसे कहो।

द्रोण ने कहा- भृगुनन्‍दन! आप मुझे प्रयोग, रहस्‍य तथा संहार विधि सहित सम्‍पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों का ज्ञान प्रदान करें। तब ‘तथास्‍तु’ कहकर भृगुवंशी परशुराम जी ने द्रोण को सम्‍पूर्ण अस्त्र प्रदान किये तथा रहस्‍य और व्रत सहित सम्‍पूर्ण धनुर्वेद का भी उपदेश किया। वह सब ग्रहण करके द्विजश्रेष्ठ द्रोण अस्त्र विद्या के पूरे पण्डित हो गये और अत्‍यन्‍त प्रसन्न हो अपने प्रिय सखा द्रुपद के पास गये।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्‍तर्गत सम्‍भव पर्व में द्रोण को परशुराम जी से अस्त्रविद्या की प्राप्तिविषयक एक सौ उन्तीसवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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