महाभारत आदि पर्व अध्याय 128 श्लोक 19-38

अष्टाविंशत्यधिकशततम (128) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: अष्टाविंशत्यधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 19-38 का हिन्दी अनुवाद


वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! विद्वान् विदुर यों कहकर अपने घर में चले गये। इधर कुन्‍ती चिन्‍तामग्न होकर अपने चारों पुत्रों के साथ चुपचाप घर में ही बैठ रही। उधर, नागलोक में सोये हुए बलवान् भीमसेन आठवें दिन, जब वह रस पच गया, जगे। उस समय उनके बल की कोई सीमा नहीं रही। पाण्‍डुनन्‍दन भीम को जगा हुआ देख सब नागों ने शान्‍तचित्त उन्‍हें आश्वासन दिया और यह बात कही- ‘महाबाहो! तुमने जो यह शक्तिपूर्ण रस पीया है, इसके कारण तुम्‍हारा बल दस हजार हाथियों के समान होगा और तुम युद्ध में अजेय हो जाओगे। आज तुम इस दिव्‍य जल से स्‍नान करो और अपने घर लौट जाओ। कुरुश्रेष्ठ! तुम्‍हारे बिना तुम्‍हारे सब भाई निरन्‍तर दु:ख और चिन्‍ता में डूबे रहते हैं’। तब महाबाहु भीमसेन ने स्‍नान करके शुद्ध हो गये। उन्‍होंने श्वेत वस्त्र पुष्‍पों की माला धारण की। तत्‍पश्चात नाग राज के भवन में उनके लिये कौतुक एवं मंगलाचार सम्‍पन्न किये गये। फिर उन महाबली भीम ने विष-नाशक सुगन्धित औषधियों के साथ नागों की दी हुई खीर खायी। इसके बाद नागों ने वीर भीमसेन का आदर-सत्‍कार करके उन्‍हें शुभाशीर्वादों से प्रसन्न किया। दिव्‍य आभूषणों से विभूषित शत्रुदमन भीमसेन नागों की आज्ञा ले प्रसन्नचित्त हो नागलोक से जाने को उद्यत हुए। तब किसी नाग ने कमलनयन कुरुनन्‍दन भीम को जल से ऊपर उठाकर उसी वन में (गंगा तटवर्ती प्रमाण कोटि में) रख दिया।

फिर वे नाग पाण्‍डुपुत्र भीम के देखते-देखते अन्‍तर्धान हो गये। तब महाबली कुन्‍तीकुमार महाबाहु भीमसेन वहाँ से उठकर शीघ्र ही अपनी माता के समीप आ गये। तदनन्‍तर शत्रुदमन भीम ने माता और बड़े भाई को प्रणाम करके स्‍नेहपूर्वक छोटे भाइयों का सिर सूंघा। माता तथा उन नरश्रेष्ठ भाइयों ने भी उन्‍हें हृदय से लगाया और एक दूसरे के प्रति स्‍नेहाधिक्‍य के कारण सबने भीम के आगमन से अपने सौभाग्‍य की सराहना की- ‘अहोभाग्‍य! अहोभाग्‍य!’ कहा। तदनन्‍तर महान् बल और पराक्रम से सम्‍पन्न भीमसेन ने दुर्योधन की वे सारी कुचेष्टाऐं अपने भाइयों को बतायीं। और नाग लोक में जो गुण-दोषपूर्ण घटनाऐं घटी थीं, उन सबको भी पाण्‍डुनन्‍दन भीम ने पूर्णरूप से कह सुनाया। तब राजा युधिष्ठिर ने भीमसेन से मतलब की बात कही- ‘भैया भीम! तुम सर्वथा चुप हो जाओ। तुम्‍हारे साथ जो बर्ताव किया गया है, वह कहीं किसी प्रकार भी न कहना’। यों कहकर महाबाहु धर्मराज युधिष्ठिर अपने सब भाइयों के साथ उस समय से खूब सावधान रहने लगे। दुर्योधन ने भीमसेन के प्रिय सारथि को हाथ से गला घोंट कर मार डाला। उस समय भी धर्मात्‍मा विदुर ने उन कुन्‍तीपुत्रों को यही सलाह दी कि वे चुपचाप सब कुछ सहन कर लें। धृतराष्ट्रकुमार ने भीमसेन के भोजन में पुन: नया, तीखा और सत्त्व के रूप में परिणत रोंगटे खड़े कर देने वाला कालकूट नामक विष डलवा दिया। वैश्‍यापुत्र युयुत्‍सु ने कुन्‍ती पुत्रों के हित की कामना से यह बात उन्‍हें बता दी। परंतु भीम से उस विष को भी खाकर बिना किसी विकार के पचा लिया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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