चतुर्विंशत्यधिकशततम (124) अध्याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: चतुर्विंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 29 का हिन्दी अनुवाद
वह जिस प्रकार से अपने शरीर को सुखाने के प्रयत्न में लगी रहती है। किंतु विषयों के द्वारा नष्ट हुई बुद्धि वाली जो नारी देह को पुष्ट करने में ही लगी रहती है, वह तो इस (दुर्लभ मनुष्य-) शरीर को व्यर्थ ही नष्ट करके नि:संदेह महान् नरक को प्राप्त होती है। अत: साध्वी स्त्री को उचित है कि वह अपने शरीर को सुखावे, जिससे सम्पूर्ण विषय-कामनाऐं नष्ट हो जायं। इस प्रकार उपर्युक्त धर्म का पालन करने वाली जो शुभ लक्षणा नारी अपने पति देव का चिन्तन करती रहती है, वह अपने पति का भी उद्धार कर देती है। इस तरह वह स्वयं अपने को, अपने पति को एवं पुत्र को भी संसार से तार देती है। अत: हम लोग तो यही अच्छा मानते हैं कि तुम दोनों जीवन धारण करो। कुन्ती बोली- महात्माओं! हमारे लिये महाराज पाण्डु की आज्ञा जैसे शिरोधार्य है, उसी प्रकार आप सब ब्राह्मणों की भी है। आपका आदेश मैं सिर-माथे रखती हूँ। आप जैसा कहेंगे, वैसा ही करूंगी। पूज्यपाद विप्रगण जैसा कहते हैं, उसी को मैं अपने पति, पुत्रों तथा अपने आपके लिये भी परम कल्याण कारी समझती हूं- इसमें तनिक भी संशय नहीं है। माद्री ने कहा- कुन्तीदेवी सभी पुत्रों के योग-क्षेम के निर्वाह में-पालन-पोषण में समर्थ हैं। कोई भी स्त्री, चाहे वह अरुन्धती ही क्यों न हो, बुद्धि में इनकी समानता नहीं कर सकती। वृष्णिवंश के लोग तथा महाराज कुन्तिभोज भी कुन्ती के रक्षक एवं सहायक हैं। बहिन! पुत्रों के पालन-पोषण की शक्ति जैसी आप में है, वैसी मुझमें नहीं है। अत: मैं पति का ही अनुगमन करना चाहती हूँ। पति के संयोग-सुख से मेरी तृप्ति भी नहीं हुई है। अत: आप बड़ी महारानी से मेरी प्रार्थना है कि मुझे पति लोक में जाने की आज्ञा दें। मैं वहीं धर्मज्ञ, कृतज्ञ, सत्यप्रतिज्ञ और बुद्धिमान् पति के चरणों की सेवा करूंगी। आर्ये! आप मेरी इस इच्छा का अनुमोदन करें। वैशम्पायन जी कहते हैं- महाराज! यों कहकर मद्र देश की राजकुमारी सती-साध्वी माद्री ने कुन्ती को प्रणाम करके अपने दोनों जुड़वे पुत्र उन्हीं हो सौंप दिये। तत्पश्चात् उसने महर्षियों को मस्तक नवाकर पाण्डवों को हृदय से लगा लिया और बार-बार कुन्ती के तथा अपने पुत्रों के मस्तक सूंघकर युधिष्ठिर का हाथ पकड़कर कहा। माद्री बोली- बच्चों! कुन्तीदेवी ही तुम सबों की असली माता हैं, मैं तो केवल दूध पिलाने वाली धाय थी। तुम्हारे पिता तो मर गये। अब बड़े भैया युधिष्ठिर ही धर्मत: तुम चारों भाइयों के पिता हैं। तुम सब बड़े-बूढ़ों-गुरुजनों की सेवा में संलग्न रहना और सत्य एवं धर्म के पालन से कभी मुंह न मोड़ना। ऐसा करने वाले लोग कभी नष्ट नहीं होते और न कभी उनकी पराजय ही होती है। अत: तुम सब भाई आलस्य छोड़कर गुरुजनों की सेवा में तत्पर रहना। वैशम्पायन जी ने कहा- राजन्! तत्पश्चात् माद्री ने ऋषियों तथा कुन्ती को बारंबार नमस्कार करके, क्लेश से क्लांत होकर कुन्ती देवी से दीनतापूर्वक कहा- वृष्णिकुलनन्दिनि! आप धन्य हैं। आपकी समानता करने वाली दूसरी कोई स्त्री नहीं है; क्योंकि आपको इन अमिततेजस्वी तथा यशस्वी पांचों पुत्रों के बल, पराक्रम, तेज, योग बल तथा महात्म्य देखने का सौभाग्य प्राप्त होगा। मैंने स्वर्गलोक में जाने की इच्छा रखकर इन महर्षियों के समीप जो यह बात कही है, वह कदापि मिथ्या न हो। देवि! आप मेरी गुरु, वन्दनीया तथा पूजनीया हैं; अवस्था में बड़ी तथा गुणों में भी श्रेष्ठ हैं। समस्त नैसर्गिक सद्गुण आपकी शोभा बढ़ाते हैं। यादवनन्दिनि! अब मैं आपकी आज्ञा चाहती हूँ। आपके प्रयत्न द्वारा जैसे भी मुझे धर्म, स्वर्ग तथा कीर्ति की प्राप्ति हो, वैसा सहयोग आप इस अवसर पर करें। मन में किसी दूसरे विचार को स्थान न दें। तब यशस्विनी कुन्ती ने वाष्पगद्गद वाणी में कहा- 'कल्याणि! मैंने तुम्हें आज्ञा दे दी। विशाललोचने! तुम्हें आज ही स्वर्गलोक में पति का समागम प्राप्त हो भमिनि! तुम स्वर्गलोक में पति से मिलकर अनन्त वर्षों तक प्रसन्न रहो।' माद्री बोली- 'मेरे इस शरीर को महाराज के शरीर के साथ ही अच्छी प्रकार ढंककर दग्ध कर देना चाहिये। बड़ी बहिन! आप मेरा यह प्रिय कार्य कर दें। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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