अष्टादशाधिकशततम (118) अध्याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: अष्टादशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 29-50 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! कुरुकुल को आनन्दित करने वाले राजा पाण्डु ने अपनी दोनों पत्नियों से यों कहकर अपने सिरपेंच, निष्क (वक्ष:स्थल के आभूषण), बाजूबंद, कुण्डल और बहुमूल्य वस्त्र तथा माद्री और कुन्ती के भी शरीर के गहने उतार कर सब ब्राह्मणों को दे दिये। फिर सेवकों से इस प्रकार कहा- ‘तुम लोग हस्तिनापुर में जाकर कह देना कि कुरुनन्दन राजा पाण्डु अर्थ, काम, विषय सुख और स्त्रीविषयक रति आदि सब कुछ छोड़कर अपनी पत्नियों के साथ वानप्रस्थ हो गये हैं।’ भरतसिंह पाण्डु की यह करुणायुक्त चित्र-विचित्र वाणी सुनकर उनके अनुचर और सेवक सभी हाय-हाय करके भयंकर आर्तनाद करने लगे। उस समय नेत्रों से गरम-गरम आंसुओं की धारा बहाते हुए वे सेवक राजा पाण्डु को छोड़कर और बचा हुआ सारा धन लेकर तुरंत हस्तिनापुर को चले गये। उन्होंने हस्तिनापुर में जाकर महात्मा राजा पाण्डु का सारा समाचार राजा धृतराष्ट्र को ज्यों-का-त्यों कह सुनाया और नाना प्रकार का धन धृतराष्ट्र को ही सौंप दिया। फिर उन सेवकों से उस महान् वन में पाण्डु के साथ घटित हुई सारी घटनाओं को यथावत् सुनकर नरश्रेष्ठ धृतराष्ट्र सदा पाण्डु की ही चिन्ता में दुखी रहने लगे। शय्या, आसन और नाना प्रकार के भोगों में कभी उनकी रुचि नहीं होती थी। वे भाई के शोक में मग्न हो सदा उन्हीं की बात सोचते रहते थे। जनमेजय! राजकुमार पाण्डु फल-मूल का आहार करते हुए, अपनी दोनों पत्नियों के साथ वहाँ से नागशत नामक पर्वत पर चले गये। तत्पश्चात चैत्ररथ नामक वन में जाकर कालकूट और हिमालय पर्वत को लांघते हुए वे गन्धमादन पर चले गये। महाराज! उस समय महाभूत, सिद्ध और महर्षिगण उनकी रक्षा करते थे। वे ऊंची-ऊंची जमीन पर सोते थे। इन्द्रद्युम्न सरोवर पर पहुँचकर तथा उसके बाद हंसकूट को लांघते हुए वे शतश्रंग पर्वत पर जा पहुँचे। जनमेजय! वहाँ वे तपस्वी जीवन बिताते हुए भारी तपस्या में संलग्न हो गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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