चतुरधिकशततम (104) अध्याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: चतुरधिकशततम अध्याय: श्लोक 16-34 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- कुरुनन्दन! उस समय भीष्म जी के इस प्रकार अपनी सम्मति देने पर काली (सत्यवती) ने मुनिवर कृष्णद्वैपायन का चिन्तन किया। जनमेजय! माता ने मेरा स्मरण किया है, यह जानकर परमबुद्धिमान् व्यास जी वेदमन्त्रों का पाठ करते हुए क्षण भर में वहाँ प्रकट हो गये। वे कब किधर से आ गये, इसका पता किसी को न चला। सत्यवती ने अपने पुत्र का भलिभाँति सत्कार किया और दोनों भुजाओं से उनका आलिंगन करके अपने स्तनों के झरते हुए दूध से उनका अभिषेक किया। अपने पुत्र को दीर्घकाल के बाद देखकर सत्यवती की आंखों में स्नेह और आनन्द के आंसू बहने लगे। तदनन्तर सत्यवती के प्रथम पुत्र महर्षि व्यास ने अपने कमण्डल के पवित्र जल से दु:खिनी माता का अभिषेक किया और उन्हें प्रणाम करके इस प्रकार कहा- ‘धर्म के तत्त्व को जानने वाली माता जी! आपकी जो हार्दिक इच्छा हो, उसके अनुसार कार्य करने के लिये मैं यहाँ आया हूँ। आज्ञा दीजिये, मैं आपकी कौन-सी प्रिय सेवा करूं’। तत्पश्चात् पुरोहित ने महर्षि का विधिपूर्वक मन्त्रोच्चारण के साथ पूजन किया और महर्षि ने उसे प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण किया। विधि और मन्त्रोच्चारणपूर्वक की हुई उस पूजा से व्यासजी बहुत प्रसन्न हुए। जब वे आसन पर बैठ गये, तब माता सत्यवती ने उनका कुशल-क्षेम पूछा और उनकी ओर देखकर इस प्रकार कहा- ‘विद्वन्! माता और पिता दोनों से पुत्रों का जन्म होता है, अत: उन पर दोनों का समान अधिकार होता है। जैसे पिता पुत्रों का स्वामी है, उसी प्रकार माता भी है। इसमें संदेह नहीं है। ब्रह्मर्षे! विधाता के विधान या मेरे पूर्व जन्मों के पुण्य से जिस प्रकार तुम मेरे प्रथम पुत्र हो, उसी प्रकार विचित्रवीर्य मेरा सबसे छोटा पुत्र था। जैसे एक पिता के नाते भीष्म उसके भाई हैं, उसी प्रकार एक माता के नाते तुम भी विचित्रवीर्य के भाई ही हो। बेटा! मेरी तो ऐसी ही मान्यता है; फिर तुम जैसा समझो। ये सत्यपराक्रमी शान्तनुनन्दन भीष्म सत्य का पालन कर रहे हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज