पंचसप्ततितम (75) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: पंचसप्ततितम अध्याय: श्लोक 19-41 का हिन्दी अनुवाद
कुछ लोक यज्ञशूर हैं। कुछ इन्द्रियसंयम में शूर होने के कारण दमशूर कहलाते हैं। इसी प्रकार कितने ही मानव सत्यशूर, युद्धशूर, दानशूर, वुद्धिशूर तथा क्षमाशूर कहे गये हैं। बहुत-से मनुष्य सांख्यशूर, योगशूर, वनवासशूर, गृहवासशूर तथा त्यागशूर हैं। कितने मानव सरलता दिखाने में शूरवीर हैं। बहुत-ए शम (मनोनिग्रह) में ही शूरता प्रकट करते हैं। विभिन्न नियमों द्वारा अपना शौर्य सूचित करने वाले भी बहुत-से शूरवीर हैं। कितने ही वेदाध्ययनशूर, अध्यापनशूर, गुरुशुश्रूषाशूर, पितृसेवाशूर, मात्रसेवाशूर तथा भिक्षाशूर हैं। कुछ लोग वनवास में, कुछ गृहवास में और कुछ लोग अतिथियों की सेवा-पूजा में शूरवीर होते हैं। ये सब-के-सब अपने कर्म फलों द्वारा उपार्जित उत्तम लोकों में जाते हैं। सम्पूर्ण वेदों को धारण करना और समस्त तीर्थों में स्नान करना, इन सतकर्मों का पुण्य सदा सत्य बोलने वाले पुरुष के पुण्य के बरावर हो सकता है या नहीं; इसमें संदेह है। अर्थात इनसे सत्य श्रेष्ठ है। यदि तराजू के एक पलड़े पर एक हज़ार अश्वमेध यज्ञों का पुण्य और दूसरे पलड़े पर केवल सत्य रखा जाये तो एक सहस्र अध्वमेध यज्ञों की अपेक्ष सत्य का ही पलड़ा भारी होगा। सत्य के प्रभाव से सूर्य तपते हैं, सत्य से अग्नि प्रज्वलित होती है और सत्य से ही वायु का सर्वत्र संचार होता है; क्योंकि सब कुछ सत्य पर ही टिका हुआ है। देवता, पितर और ब्राह्मण सत्य से ही प्रसन्न होते हैं। सत्य को ही परम धर्म बताया गया है, अतः सत्य का ही कभी उल्लंघन नहीं करना चाहिये। ऋषि-मुनि सत्यपरायण एवं सत्यपराक्रमी और सत्यप्रतिज्ञ होते हैं। इसलिये सत्य सबसे श्रेष्ठ है। भरतश्रेष्ठ! सत्य बोलने वाले मनुष्य स्वर्गलोक में आनन्द भोगते हैं, किंतु इन्द्रियसंयम-दम उस सत्य के फल की प्राप्ति में कारण है। यह बात मैंने सम्पूर्ण हृदय से कही है। जिसने अपने मन को वश में करके विनयशील बना दिया है, वह निश्चय ही स्वर्गलोक में सम्मानित होता है। पृथ्वीनाथ! अव तुम ब्रह्मचर्य के गुणों का वर्णन सुनो। नरेश्वर! जो जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त यहाँ ब्रह्मचारी ही रह जाता है, उसके लिये कुछ भी अलभ्य नहीं है, इस बात को जान लो। ब्रह्मलोक में ऐसे करोड़ों ऋषि निवास करते हैं, जो इस लोक में सत्यवादी, जितेन्द्रिय और उर्ध्वरेता (नैष्ठिक ब्रह्मचारी) रहे हैं। राजन! यदि ब्राह्मण विशेष रूप से ब्रह्मचर्य का पालन करे तो वह सम्पूर्ण पापों को भस्म कर डालता है; क्योंकि ब्रह्मचारी ब्राह्मण अग्निस्वरूप कहा जाता है। तपस्वी ब्राह्मणों में यह बात प्रत्यक्ष देखी जाती है; क्योंकि ब्रह्मचारी के आक्रमण करने पर साक्षात इन्द्र भी डरते हैं। ब्रह्मचर्य का वह फल यहाँ ऋषियों में दृष्टिगोचर होता है। अब तुम माता-पिता आदि के पूजन से जो धर्म होता है, उसके विषय में भी मुझसे सुनो। राजन! जो माता-पिता, बड़े भाई, गुरु और आचार्य की सेवा करता है और कभी उनके गुणों में दोषदृष्टि नहीं करता है, उसको मिलने वाले फल को जान लो। उसे स्वर्गलोक में सर्वसम्मानित स्थान प्राप्त होता है। मन को वश में रखने वाला वह पुरुष गुरुशुश्रूषा के प्रभाव से कभी नरक का दर्शन नहीं करता।
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासन पर्व के अन्तर्गत दानधर्म पर्व में पचहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ।
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज