महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 59 श्लोक 19-33

एकोनषष्टितम (59) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: एकोनषष्टितम अध्याय: श्लोक 19-33 का हिन्दी अनुवाद


द्विज के द्वारा सांय और प्रातःकाल विधिपूर्वक किया हुआ अग्निहोत्र जो फल प्रदान करता है, वही फल संयमी ब्राह्मणों को दान देने से मिलता है। तात! तुम्हारे द्वारा किया जाने बाला विशाल दान-यज्ञ श्रद्धा से पवित्र एवं दक्षिणा से युक्त है। वह सब यज्ञों से बढ़कर है। तुझ दाता का वह यज्ञ सदा चालू रहे।

भीष्म कहते हैं- युधिष्ठिर! पूर्वोक्त ब्राह्मणों को पितरों के लिये किये जाने वाले तर्पण की भाँति दानरूपी जल से तृप्त करके उन्हें निवास और आदर देते रहो। ऐसा करने वाला पुरुष देवता आदि के ऋण से मुक्त हो जाता है। जो ब्राह्मण कभी क्रोध नहीं करते, जिनके मन में एक तिनके भर का लोभ नहीं होता तथा जो प्रिय वचन बोलने वाले हैं, वे ही हम लोगों के परम पूज्य हैं। उपर्युक्त ब्राह्मण निःस्पृह होने के कारण दाता के प्रति विशेष आदर नहीं प्रकट करते। इनमें से तो कितने ही धनोपार्जन के कार्य में तो प्रवृत्त ही नहीं होते हैं। ऐसे ब्राह्मणों का पुत्रवत पालन करना चाहिये। उन्हें बारंबार नमस्कार है। उनकी ओर से हमें कोई भय न हो। ऋत्विक, पुरोहित और आचार्य- यह प्रायः कोमल स्वभाव वाले और वेदों को धारण करने वाले होते हैं। क्षत्रिय का तेज ब्राह्मण के पास जाते ही शांत हो जाता है।

युधिष्ठिर! मेरे पास धन है, मैं बलवान हूँ और राजा हूँ; ऐसा समझते हुए तुम ब्राह्मणों की उपेक्षा करके स्‍वयं ही अन्न और वस्त्र का उपभोग न करना। अनघ! तुम्हारे पास शरीर और घर की शोभा बढ़ाने अथवा बल की वृद्धि करने के लिये जो धन है, उनके द्वारा स्वधर्म का अनुष्ठान करते हुए तुम्हें ब्राह्मणों की पूजा करनी चाहिये। इतना ही नहीं, तुम्हें उन ब्राह्मणों को सदा नमस्कार करना चाहिये। वे अपनी रूचि के अनुसार जैसे चाहे रहें। तुम्हारे पास पुत्र की भाँति उन्हें स्नेह प्राप्त होना चाहिये तथा वे सुख और उत्साह के साथ आनन्दपूर्वक रहें, ऐसी चेष्टा करनी चाहिये।

कुरुश्रेष्ठ! जिनकी कृपा अक्षय है, जो अकारण ही सब का हित करने वाले और थोड़े में ही संतुष्ट रहने वाले हैं, उन ब्राह्मणों को तुम्हारे सिवा दूसरा कौन जीविका दे सकता है। जैसे इस संसार में स्त्रियों का सनातन धर्म सदा पति की सेवा पर ही अवलम्बित है, उसी प्रकार ब्राह्मण ही सदैव हमारे आश्रय हैं। हम लोगों के लिये उनके सिवा दूसरा कोई सहारा नहीं है। तात! यदि ब्राह्मण क्षत्रियों के द्वारा सम्मानित न हो तथा क्षत्रिय में सदा रहने वाले निष्ठुर कर्म को देखकर ब्राह्मण भी उनका परित्याग कर दे तो वे क्षत्रिय वेद, यज्ञ, उत्तम लोक और आजीविका से भी भ्रष्ट हो जायें। उस दशा में ब्राह्मणों का आश्रय लेने वाले तुम्हारे सिवा उन दूसरे क्षत्रियों के जीवित रहने का क्या प्रयोजन है?

राजन! अब मैं तुम्हें सनातन काल का धार्मिक व्यवहार कैसा है, यह बताऊँगा। हमने सुना है, पूर्व काल में क्षत्रिय ब्राह्मणों की, वैश्य क्षत्रियों की और शूद्र वैश्‍यों की सेवा किया करते थे। ब्राह्मण अग्नि के समान तेजस्वी हैं; अतः शूद्र को दूर से ही उनकी सेवा करनी चाहिये। उनके शरीर से स्पर्शपूर्वक सेवा करने का अधिकार केवल क्षत्रिय और वैश्‍य को ही है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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