महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 2 श्लोक 44-63

द्वितीय (2) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: द्वितीय अध्याय: श्लोक 44-63 का हिन्दी अनुवाद


सुन्‍दरी! अतिथि-सेवा का यह व्रत मेरे हृदय में सदा स्थित रहता है। गृहस्‍थों के लिये अतिथि-सेवा से बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है। वामोरु शोभने! यदि तुम्‍हें मेरा वचन मान्‍य हो तो मेरी इस बात को शान्‍त भाव से सदा अपने हृदय में धारण किये रहना। कल्‍याणि! निष्‍पाप! यदि तुम मुझे आदर्श मानती हो तो मैं घर में रहूँ या घर से कहीं दूर निकल जाऊँ, तुम्‍हें किसी भी दशा में अतिथि का अनादर नहीं करना चाहिये।"

यह सुनकर ओघवती ने दोनों हाथ जोड़ मस्‍तक में लगाकर कहा- "कोई भी ऐसा कार्य नहीं है, जो मैं आपकी आज्ञा से किसी कारणवश न कर सकूँ।"

राजन! उन दिनों गृहस्‍थ-धर्म में स्थित हुए सुदर्शन को जीतने की इच्‍छा से मृत्‍यु उनका छिद्र खोजती हुई सदा उनके पीछे लगी रहती थी। एक दिन अग्निपुत्र सुदर्शन जब समिधा लाने के लिये बाहर चले गये, उसी समय उनके घर पर एक तेजस्‍वी ब्राह्मण अतिथि आया और ओघवती से बोला- "बरवर्णिनि! यदि तुम गृहस्‍थसम्‍मत धर्म को मान्‍य समझती हो तो आज मैं तुम्‍हारे द्वारा किया गया आतिथ्‍यसत्‍कार ग्रहण करना चाहता हूँ।"

प्रजानाथ! उस ब्राह्मण के ऐसा कहने पर यशस्विनी राजकुमारी ओघवती ने वेदोक्‍त विधि से उसका पूजन किया। ब्राह्मण को बैठने के लिये आसन और पैर धोने के लिये जल देकर ओघवती ने उससे पूछा- "विप्रवर! आपको किस वस्‍तु की आवश्‍यकता है? मैं आपकी सेवा में क्‍या भेंट करूँ?" तब ब्राह्मण ने दर्शनीय सौन्‍दर्य से सुशोभित राजकुमारी ओघवती से कहा- "कल्‍याणि। मुझे तुम से ही काम है। तुम नि:शंक होकर मेरा यह प्रिय कार्य करो। रानी! यदि तुम्‍हें गृहस्‍थ सम्‍मत धर्म मान्‍य है तो मुझे अपना शरीर देकर मेरा प्रिय कार्य करना चाहिये।" राजकन्‍या ने दूसरी कोई अभीष्‍ट वस्‍तु माँगने के लिये उस अतिथि से बारंबार अनुरोध किया, किंतु उस ब्राह्मण ने उसके शरीर-दान के सिवा और कोई अभिलषित पदार्थ उससे नहीं माँगा। तब राजकुमारी ने पहले कहे हुए पति के वचन को याद करके लजाते-लजाते उस द्विजश्रेष्‍ठ से कहा- "अच्‍छा, आपकी आज्ञा स्‍वीकार है।" गृहस्‍थाश्रम-धर्म के पालन की इच्‍छा रखने वाले पति की कही हुई बात को स्‍मरण करके जब उसने ब्राह्मण के समक्ष हाँ कर दिया, तब उस विप्र ऋषि ने मुसकराकर ओघवती के साथ घर के भीतर प्रवेश किया। इतने ही में अग्निकुमार सुदर्शन समिधा लेकर लौट आये।

मृत्‍यु क्रूर भावना से सदा उनके पीछे लगी रहती थी, मानो कोई स्‍नेह बन्‍धु अपने प्रिय बन्‍धु के पीछे-पीछे चल रहा हो। आश्रम पर पहुँचकर फिर अग्निपुत्र सुदर्शन अपनी पत्‍नी ओघवती को बारंबार पुकारने लगे- "देवि! तुम कहाँ चली गयीं?" परंतु ओघवती ने उस समय अपने पति को कोई उत्तर नहीं दिया। अतिथिरूप में आये हुए ब्राह्मण ने अपने होनों हाथों से उसे छू दिया था। इससे वह सती-साध्‍वी पतिव्रता अपने को दूषित मानकर अपने स्‍वामी से भी लज्जित हो गयी थी; इसीलिये वह साध्‍वी चुप हो गयी। कुछ भी बोल न सकी। अब सुदर्शन फिर पुकार-पुकार कर इस प्रकार कहने लगा- "मेरी वह साध्‍वी पत्‍नी कहाँ है? वह सुशीला कहाँ चली गयी? मेरी सेवा से बढ़कर कौन गुरुतर कार्य उस पर आ पड़ा। वह पतिव्रता, सत्‍य बोलने वाली और सदा सरलभाव से रहने वाली है। आज पहले की ही भाँति मुसकराती हुई वह मेरी अगवानी क्‍यों नहीं कर रही है?"

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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