सत्रहवां (17) अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: सप्तदश अध्याय: श्लोक 155-182 का हिन्दी अनुवाद
रुद्रदेव में निश्चल एवं निर्विघ्नरूप से अनन्य-भक्ति हो जाये, यह देवताओं के लिये भी दुर्लभ है। मनुष्यों में तो प्रायः ऐसी भक्ति स्वतः नहीं उपलब्ध होती है। भगवान शंकर की कृपा से ही मनुष्यों के हृदय में उनकी अनन्य भक्ति उत्पन्न होती है, जिससे वे अपने चित्त को उन्हीं के चिन्तन में लगाकर परमसिद्धि को प्राप्त होते हैं। जो सम्पूर्ण भाव से अनुगत होकर महेश्वर की शरण लेते हैं, शरणागतवत्सल महादेव जी इस संसार से उनका उद्धार कर देते हैं। इसी प्रकार भगवान कि स्तुति द्वारा अन्य देवगण भी अपने संसारबन्धन का नाश करते हैं; क्योंकि महादेव जी की शरण लेने के सिवा ऐसी दूसरी कोई शक्ति या तप का बल नहीं है, जिससे मनुष्यों का संसारबन्धन से छुटकारा हो सके। श्रीकृष्ण! यह सोचकर उन इन्द्र के समान तेजस्वी एवं कल्याणमयी बुद्धि वाले तण्डि मुनि ने गजचर्मधारी एवं समस्त कार्यकारण के स्वामी भगवान शिव की स्तुति की। भगवान शंकर के इस स्तोत्र को ब्रह्मा जी ने स्वयं अपने हृदय में धारण किया है। वे भगवान शिव के समीप इस वेदतुल्य स्तुति का गान करते रहते हैं, अतः सबको इस स्तोत्र का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। यह परम पवित्र, पुण्यजनक तथा सर्वदा सब पापों का नाश करने वाला है। यह योग, मोक्ष, स्वर्ग और संतोष- सब कुछ देने वाला है। जो लोग अनन्य भक्तिभाव से भगवान शिव के स्वरूप-भूत इस स्तोत्र का पाठ करते हैं, उन्हें वही गति प्राप्त होती है जो सांख्यवेत्ताओं और योगियों को मिलती है। जो भक्त भगवान शंकर के समीप एक वर्ष तक सदा प्रयत्नपूर्वक इस स्तोत्र का पाठ करता है, वह मनोवांछित फल प्राप्त कर लेता है। यह परम रहस्यमय स्तोत्र ब्रह्मा जी के हृदय में स्थित है। ब्रह्मा जी ने इन्द्र को इसका उपदेश दिया और इन्द्र ने मृत्यु को। मृत्यु ने एकादश रुद्रों को इसका उपदेश किया। रुद्रों से तण्डि को इसकी प्राप्ति हुई। तण्डि ने ब्रह्मलोक में ही बड़ी भारी तपस्या करके इसे प्राप्त किया था। माधव! तण्डि ने शुक्र को, शुक्र ने गौतम को और गौतम ने वैवस्वत मनु को इसका उपदेश दिया। वैवस्वत मनु ने समाधिनिष्ठ और ज्ञानी नारायण नामक किसी साध्य देवताओं को यह स्तोत्र प्रदान किया। धर्म से कभी च्युत न होने वाले उन पूजनीय नारायण नामक साध्यदेव ने यम को इसका उपदेश किया। वृष्णिनन्दन! ऐश्वर्यशाली वैवस्वत यम ने नाचिकेता के और नाचिकेत ने मार्कण्डेय मुनि को यह स्तोत्र प्रदान किया। शत्रुसूदन जनार्दन! मार्कण्डेय जी से मैंने नियमपूर्वक यह स्तोत्र ग्रहण किया था। अभी इस स्तोत्र की अधिक प्रसिद्धि नहीं हुई है, अतः मैं तुम्हें इसका उपदेश देता हूँ। यह वेदतुल्य स्तोत्र स्वर्ग, आरोग्य, आयु तथा धन-धान्य प्रदान करने वाला है। यक्ष, राक्षस, दानव, पिशाच, यातुधान, गुह्यक और नाग भी इसमें विघ्न नहीं डाल पाते हैं।' श्रीकृष्ण कहते हैं- "कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर! जो मनुष्य पवित्र भाव से ब्रह्मचर्य के पालनपूर्वक इन्द्रियों को संयम में रखकर एक वर्ष तक योगयुक्त रहते हुए इस स्तोत्र का पाठ करता है, उसे अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है।"
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासन पर्व के अन्तर्गत दानधर्म पर्वमें महादेव सहस्रनामस्तोत्र विषयक सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ।
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज