द्वादशाधिकशततम (112) अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: द्वादशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 19-31 का हिन्दी अनुवाद
न्याय के अनुसार अन्न प्राप्त करके उसे वेदवेत्ता ब्राह्मण को हर्षपूर्वक दान देने वाला मनुष्य अपने पापों के बन्धन से मुक्त हो जाता है। संसार में अन्न ही बल की वृद्धि करने वाला है, अतः अन्न का दान करके मनुष्य बलवान होता है और सत्पुरुषों के मार्ग का आश्रय लेकर समस्त पापों से छूट जाता है। दाता पुरुषों ने जिस मार्ग को चालू किया है, उसी से मनीषी पुरुष चलते हैं। अन्नदान करने वाले मनुष्य वास्तव में प्राणदान करने वाले हैं। उन्हीं लोगों से सनातन धर्म की वृद्धि होती है। मनुष्य को प्रत्येक अवस्था में न्यायतः उपार्जित किया हुआ अन्न सत्पात्र के लिये अर्पित करना चाहिये; क्योंकि अन्न ही सब प्राणियों का परम आधार है। अन्नदान करने से मनुष्य को कभी नरक की भयंकर यातना नहीं भोगनी पड़ती; अतः न्यायोपार्जित अन्न का ही सदा दान करना चाहिये। प्रत्येक ग्रहस्थ को उचित है कि वह पहले ब्राह्मण को भोजन कराकर फिर स्वयं भोजन करने का प्रयत्न करे तथा अन्नदान के द्वारा प्रत्येक दिन को सफल बनावे। नरेश्वर! जो मनुष्य वेद, न्याय, धर्म और इतिहास के जानने वाले एक हज़ार ब्राह्मण को भोजन कराता है, वह घोर नरक और संसार चक्र में नहीं पड़ता। इहलोक में उसकी सारी कामनाएँ पूर्ण होती हैं और मरने के बाद वह परलोक में सुख भोगता है। इस प्रकार अन्नदान में संलग्न हुआ पुरुष निश्चिन्त हो सुख का अनुभव करता है और रूपवान, कीर्तिवान तथा धनवान होता है। भारत! अन्नदान सब प्रकार के धर्मों और दानों का मूल है। इस प्रकार मैंने तुम्हे यह अन्नदान का सारा महान फल बताया है।
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासन पर्व के अंतर्गत दानधर्म पर्व में संसार चक्र विषयक एक सौ बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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