महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 111 श्लोक 115-133

एकादशाधिकशततम (111) अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: एकादशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 115-133 का हिन्दी अनुवाद


वह किसी प्रकार जाल से छूटा हुआ भी चौथे महीने में मृत्यु को प्राप्त हो हिंसक जंतु भेड़िया आदि होता है। उस योनि में दस वर्षों तक रहकर वह पांच वर्षों तक व्याघ्र या चीते की योनि में पड़ा रहता है। तदनन्तर पाप का क्षय होने पर काल की प्रेरणा से मृत्यु को प्राप्त हो वह पुनः मनुष्य होता है। जो खोटी बुद्धि वाला पुरुष स्त्री की हत्या कर डालता है, वह यमराज के लोक में जाकर नाना प्रकार के क्लेश भोगने के पश्‍चात बीस बार दुःखद योनियों में जन्म लेता है।

महाराज! तदनन्तर वह कीड़े की योनि में जन्म लेता है और बीस वर्षों तक कीट योनि में रहकर अन्त में मनुष्य होता है। भोजन की चोरी करके मनुष्य मक्खी होता है और कई महीनों तक मक्खियों के समुदाय के अधीन रहता है। तत्पश्‍चात् पापों का भोग समाप्त करके वह पुनः मनुष्य योनि में जन्म लेता है। धान्य की चोरी करने वाले मनुष्य के शरीर में दूसरे जन्म में बहुत-से रोये पैदा होते हैं। प्रजानाथ! जो मानव तिल के चूर्ण से मिश्रित भोजन की चोरी करता है, वह नेवले के समान आकार वाला भयानक चूहा होता है तथा वह पापी सदा मनुष्यों का काटा करता है। जो दुर्बुद्धि मनुष्य घी चुराता है, वह काकमद्गु (सींग वाला जलपक्षी) होता है। जो खोटी बुद्धि वाला मनुष्य मत्स्य और मांस की चोरी करता है, वह कौवा होता है। नमक की चोरी करने से मनुष्य को चिरकाक योनि में जन्म लेना पड़ता है।

तात! जो मानव विश्‍वासपूर्वक रखी हुई दूसरे की धरोहर को हड़प लेता है, वह गतायु होने पर मत्स्य की योनि में जन्म लेता है। मत्स्य योनि में जन्म लेने के बाद जब मरता है, तब पुनः मनुष्य का जन्म पाता है। मानव योनि में आकर उसकी आयु बहुत कम होती है।

भारत! पाप करके मनुष्य पशु-पक्षियों की योनि में जन्म लेते हैं। वहाँ उन्हें अपने उद्धार करने वाले धर्म का कुछ भी ज्ञान नहीं रहता। जो पापाचारी पुरुष लोभ और मोह के वशीभूत हो पाप करके उसे व्रत आदि के द्वारा दूर करने का प्रयत्न करते हैं, वे सदा सुख-दुःख भोगते हुए व्यथित रहते हैं। उन्हें कहीं रहने को ठौर नहीं मिलता तथा वे म्लेच्छ होकर सदा मारे-मारे फिरते हैं। इसमें संशय नहीं है। जो मनुष्य जन्म से ही पाप का परित्याग कर देते हैं, वे नीरोग, रूपवान और धनी होते हैं। स्त्रियां भी यदि पूर्वोक्त पापकर्म करती हैं तो पाप की भागिनी होती हैं और वे उन पापभोगी प्राणियों की ही पत्नी होती हैं।

निष्पाप नरेश! पराये धन का अपहरण करने से जो दोष होते हैं, वे सब बताये गये। यहाँ मेरे द्वारा संक्षेप से ही इस विषय का दिग्दर्शन कराया गया है। भरतनन्दन! अब दूसरी बार बातचीत के प्रसंग में फिर कभी इस विषय को सुनना। महाराज! पूर्वकाल में ब्रह्मा जी देवर्षियों के बीच यह प्रसंग सुना रहे थे। वहाँ उन्हीं के मुंह से मैंने ये सारी बातें सुनी थीं और तुम्हारे पूछने पर उन्हीं सब बातों का मैंने भी यथार्थ रूप से वर्णन किया है। राजन! यह सुनकर तुम सदा धर्म में मन लगाओ।


इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासन पर्व के अंतर्गत दानधर्म पर्व में संसार चक्र नामक एक सौ ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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