महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 10 श्लोक 59-75

दशम (10) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: द्शम अध्याय: श्लोक 59-75 का हिन्दी अनुवाद


द्विजश्रेष्‍ठ! ब्रह्मन! इसी कारण से मैं आपकी ओर देखकर हँसता हूँ। आपका अनादर करने के लिये मैं आपकी हँसी नहीं उड़ाता हूँ, क्‍योंकि आप मेरे गुरु हैं। यह जो उलट-फेर हुआ, इससे मुझको बड़ा खेद है और इसी से मेरा मन संतप्‍त रहता है। मैं अपनी और आपकी भी पूर्वजन्‍म की बातों को याद करता हूँ, इसीलिये आपकी ओर देखकर हँस देता हूँ। आपकी उग्र तपस्या थी, वह मुझे उपदेश देने के कारण नष्‍ट हो गयी। अत: आप पुरोहित का काम छोड़कर पुन: संसार-सागर से पार होने के लिये प्रयत्‍न कीजिए। ब्रह्मन! साधुशिरोमणे! कहीं ऐसा न हो कि आप इसके बाद दूसरी किसी नीच योनि में पड़ जायें। अत: विप्रवर! जितना चाहिए धन ले लीजिये और अपने अन्‍त:करण को पवित्र बनाने का प्रयत्‍न कीजिए।'

भीष्म जी कहते हैं- "युधिष्ठिर! तदनन्तर राजा से विदा लेकर पुरोहित ने बहुत-से ब्राह्मणों को अनेक प्रकार के दान दिये। धन, भूमि और ग्राम भी वितरण किये। उस समय श्रेष्‍ठ ब्राह्मणों के बताये अनुसार उन्‍होंने अनेक प्रकार के कृच्छ्रव्रत किये और तीर्थों में जाकर नाना प्रकार की वस्‍तुएं दान कीं। ब्राह्मणों को गोदान करके पवित्रात्‍मा होकर उन मनस्‍वी ब्राह्मण ने फिर उसी आश्रम पर जाकर बड़ी भारी तपस्‍या की। नृपश्रेष्‍ठ! तदनन्‍तर परम सिद्धि को प्राप्‍त होकर वे ब्राह्मण देवता उस आश्रम में रहने वाले समस्‍त साधकों के लिये सम्‍माननीय हो गये। नृपशिरोमणे! इस प्रकार वे ऋषि शूद्र को उपदेश देने के कारण महान कष्‍ट में पड़ गये, इसलिये ब्राह्मण को चाहिए कि वह नीच वर्ण के मनुष्‍य को उपदेश न दे। नरेश्‍वर! ब्राह्मण को चाहिए कि वह कभी शूद्र को उपदेश न दे, क्‍योंकि उपदेश करने वाला ब्राह्मण स्‍वयं ही संकट में पड़ जाता है। नृपश्रेष्‍ठ! ब्राह्मण को अपनी वाणी द्वारा कभी उपदेश देने की इच्‍छा ही नहीं करनी चाहिए। यदि करे भी तो नीच वर्ण के पुरुष को तो कदापि कुछ उपदेश न दे।

राजन! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ये तीन वर्ण द्विजाती कहलाते हैं। इन्‍हें उपदेश देने वाला ब्राह्मण दोष का भागी नहीं होता है। इसलिये सत्‍पुरुषों को कभी किसी के सामने कोई उपदेश नहीं देना चाहिए, क्‍योंकि धर्म की गति सूक्ष्‍म है। जिन्‍होंने अपने अन्‍त:करण को शुद्ध एवं वशीभूत नहीं कर लिया है, उनके लिये धर्म की गति को समझना बहुत ही कठिन है। राजन! इसीलिये ऋषि-मुनि मौन भाव से ही आदरपूर्वक दीक्षा देते हैं। कोई अनुचित बात मुँह से न निकल जाये, इसी के भय से वे कोई भाषण नहीं देते हैं। धार्मिक, गुणवान तथा सत्‍य-सरलता आदि गुणों से सम्‍पन्‍न पुरुष भी शास्‍त्रविरुद्ध अनुचित वचन कह देने के कारण यहाँ दुष्‍कर्म के भागी हो जाते हैं। ब्राह्मण को चाहिए कि वह कभी किसी को उपदेश न करे, क्‍योंकि उपदेश करने से वह शिष्‍य के पाप को स्‍वयं ग्रहण करता है। अत: धर्म की अभिलाषा रखने वाले विद्वान पुरुष को बहुत सोच-विचारकर बोलना चाहिए, क्‍योंकि साँच और झूठ-मिश्रित वाणी से किया गया उपदेश हानिकारक होता है। यहाँ किसी के पूछने पर बहुत सोच-विचारकर शास्‍त्र का जो सिद्धांत हो, वही बताना चाहिये तथा उपदेश वह करना चाहिए, जिससे धर्म की प्राप्ति हो। उपदेश के सम्‍बन्‍ध में मैंने ये सब बातें तुम्‍हें बतायी हैं। अनधिकारी को उपदेश देने से महान क्‍लेश प्राप्‍त होता है। इसलिये यहाँ किसी को उपदेश न दे।"


इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासन पर्व के अन्‍तर्गत दानधर्म पर्व में शूद्र और मुनि का संवाद विषयक दसवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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