चतुरधिकशततम (104) अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: चतुरधिकशततम अध्याय: श्लोक 17-36 का हिन्दी अनुवाद
किसी भी वर्ण के पुरुष को कभी भी परायी स्त्रियों से संसर्ग नहीं करना चाहिये। परस्त्री-सेवन से मनुष्य की आयु जल्दी ही समाप्त हो जाती है। संसार में परस्त्री-समागम के समान पुरुष की आयु को नष्ट करने वाला दूसरा कोई कार्य नहीं है। स्त्रियों के शरीर में जितने रोमकूप होते हैं, उतने ही हज़ार वर्षों तक व्यभिचारी पुरुषों को नरक में रहना पड़ता है। केशों का संवारना, आंखों में अंजन लगाना, दांत-मुंह धोना और देवताओं की पूजा करना- ये सब कार्य दिन के पहले प्रहर में ही करने चाहिये। मल-मू्त्र की ओर न देखे, उस पर कभी पैर न रखे। अत्यन्त सबेरे, अधिक सांझ हो जाने पर और ठीक दोपहर के समय कहीं बाहर न जाये। न तो अपरिचित पुरुषों के साथ यात्रा करे, न शूद्रों के साथ और न अकेला ही। ब्राह्मण, गाय, राजा, वृद्ध पुरुष, गर्भिणी स्त्री, दुर्बल और भारपीड़ित मनुष्य यदि सामने आते हों तो स्वयं किनारे हटकर उन्हें जाने का मार्ग देना चाहिये। मार्ग में चलते समय अश्वत्थ आदि परिचित वृक्षों तथा समस्त चौराहों को दाहिने करके जाना चाहिये। दोपहर में, रात में, विशेषत: आधी रात के समय और दोनों संध्या के समय कभी चौराहों पर न रहे। दूसरों के पहने हुए वस्त्र और जूते न पहने। सदा ब्रह्मचर्य का पालन करे। पैर से पैर को न दबावे। सभी पक्षों की अमावस्या, पौर्णमासी, चतुर्दशी और अष्टमी तिथि को सदा ब्रह्मचारी रहे, स्त्री-समागम न करे। किसी की निंदा, बदनामी और चुगली न करे। दूसरों के मर्म पर आघात न करे। क्रूरतापूर्ण बात न बोले, औरों को नीचा न दिखावे। जिसके कहने से दूसरों के उद्वेग होता हो, वह रुखाई से भरी हुई बात पापियों के लोक में ले जान वाली होती है। अत: वैसी बात कभी न बोले। वचनरूपी बाण मुंह से निकलते हैं, जिनसे आहत होकर मनुष्य रात-दिन शोक में पड़ा रहता है। अत: जो दूसरों के मर्मस्थानों पर चोट करते हैं, ऐसे वचन विद्वान पुरुष दूसरों के प्रति कभी न कहे। बाणों से बिंधा और फरसे से कटा हुआ वन पुन: अंकुरित हो जाता है, किंतु दुर्वचनरूपी शस्त्र से किया हुआ भयंकर घाव नहीं भरता है। कर्णि, नालीक और नाराच- ये शरीर में यदि गड़ जायें तो चिकित्सक मनुष्य हन्हें शरीर से निकाल देते हैं, किंतु वचनरूपी बाण को निकालना असंभव होता है: क्योंकि वह हृदय के भीतर चुभा होता है। हीनांग (अंधे-काने आदि), अधिकांग (छांगुर आदि), विद्याहीन, निन्दित, कुरूप, निर्धन और निर्बल मनुष्यों पर आक्षेप करना उचित नहीं हैं। नास्तिकता, वेदों की निंदा, देवताओं को कोसना, द्वेष, उद्दण्डता, अभिमान और कठोरता- इन दुर्गुणों का त्याग कर देना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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