महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 104 श्लोक 115-131

चतुरधिकशततम (104) अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: चतुरधिकशततम अध्याय: श्लोक 115-131 का हिन्दी अनुवाद


महात्मा पुरुष के गुप्त कर्म कहीं किसी पर प्रकट नहीं करने चाहिये। परायी स्त्रियाँ सदा अगम्य होती हैं, उनके साथ कभी समागम न करे। राजा की पत्नि और सखियों के पास भी कभी न जाये।

राजेन्द्र युधिष्ठिर! वैद्यों, बालकों, वृद्धों, भृत्यों, बन्धुओं, ब्राह्मणों, शरणार्थियों तथा सम्बन्धियों की स्त्रियों के पास कभी न जाये। ऐसा करने से दीर्घायु प्राप्त होती है। मनुजेश्‍वर! अपनी उन्नति चाहने वाले विद्वान पुरुष को उचित है कि ब्राह्मण के द्वारा वास्तुपूजनपूर्वक आरंभ कराये और अच्छे कारीगर के द्वारा बनाये हुए घर में सदा निवास करे।

राजन! बुद्धिमान पुरुष सांयकाल में गोधूलि की बेला में न तो सोये, न विद्या पढे़ और न ही भोजन करे। ऐसा करने से वह बड़ी आयु को प्राप्त होता है। अपना कल्याण चाहने वाले पुरुष को रात में श्राद्धकर्म नहीं करना चाहिये। भोजन करके केशों का संस्कार (क्षौरकर्म) भी नहीं करना चाहिये तथा रात में जल से स्नान करना भी उचित नहीं है। भरतनन्दन! रात में सत्तू खाना सर्वथा वर्जित है। अन्न-भोजन के पश्‍चात जो पीने योग्य पदार्थ और जल शेष रह जाते हैं, उनका भी त्याग कर देना चाहिये। रात में न स्‍वयं डटकर भोजन करे और न दूसरे को ही डटकर भोजन करावे। भोजन करके दौड़े नहीं। ब्राह्मण का वध कभी न करे।

जो श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न हुई हो, उत्तम लक्षणों से प्रशंसित हो तथा विवाह के योग्य अवस्था को प्राप्त हो गयी हो, ऐसी सुलक्षणा कन्या के साथ श्रेष्ठ बुद्धिमान पुरुष विवाह करे। भारत! उसके गर्भ से संतान उत्पन्न करके वंश परम्परा को प्रतिष्ठित करे और ज्ञान तथा कुलधर्म की शिक्षा पाने के लिये पुत्रों को गुरु के आश्रम में भेज दे। भरतनन्दन! यदि कन्या उत्पन्न करे तो बुद्धिमान एवं कुलीन वर के साथ उसका ब्याह कर दे। पुत्र का विवाह भी उत्तम कुल की कन्या के साथ करे और भृत्य भी उत्तम कुल के मनुष्यों को ही बनावे। भारत! मस्तक पर से स्नान करके देवकार्य तथा पितृकार्य करे। जिस नक्षत्र में अपना जन्म हुआ हो, उसमें एवं पूर्वा और उत्तरा दोनों भाद्रपदाओं में तथा कृत्तिका नक्षत्र में भी श्राद्ध का निषेध है। (आश्‍लेषा, आद्रा, ज्येष्ठा और मूल आदि) सम्पूर्ण दारुण नक्षत्रों और प्रत्यरितारा का भी परित्याग कर देना चाहिये। सारांश यह है कि ज्योतिषशास्त्र के भीतर जिन-जिन नक्षत्रों में श्राद्ध का निषेध किया गया है, उन सब में देवकार्य और पितृकार्य नहीं करना चाहिये।

राजेन्द्र! मनुष्य एकाग्रचित्त होकर पूर्व या उत्तर की ओर मुंह करके हजामत बनवाये, ऐसा करने से बड़ी आयु प्राप्त होती है। भरतश्रेष्ठ! सत्तपुरुषों, गुरुजनों, वृद्धों और विशेषतः कुलांगनाओं, दूसरे लोगों की और अपनी भी निंदा न करे’; क्योंकि निंदा करना अधर्म का हेतु बताया गया है। नरश्रेष्ठ! जो कन्या किसी अंग से हीन हो, अथवा जो अधिक अंग वाली हो, जिसके गोत्र और प्रवर अपने ही समान हो तथा जो माता के कुल में (नाना के वंश में) उत्पन्न हुई हो, उसके साथ विवाह नहीं करना चाहिये। जो बूढ़ी, संन्यासिनी, पतिव्रता, नीच वर्ण की तथा ऊंचे वर्ण की स्त्री हो, उसके सम्पर्क से दूर रहना चाहिये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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