एकाधिकशततम (101) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: एकाधिकशततम अध्याय: श्लोक 15-29 का हिन्दी अनुवाद
तात! प्रभो! मैं भी दूसरे जन्म में धनसम्पन्न महान कुल में उत्पन्न हुआ था। ज्ञान-विज्ञान में पारंगत था। इन सब दोषों को जानता था तो भी अभिमानवश सदा सब प्राणियों पर क्रोध करता और पशुओं के पृष्ठ का मांस खाता था; उसी दुराचार और अभक्ष्य-भक्षण से मैं इस दुर्वस्था को प्राप्त हुआ हूँ। काल के इस उलट-फेर को देखिये। मेरी दशा ऐसी हो रही है, मानो मेरे कपड़ों के छोर में आग लग गयी हो अथवा तीखे मुख वाले भ्रमरों ने मुझे डंक मार-मार कर पीड़ित कर दिया हो। मैं रजोगुण से युक्त हो अत्यन्त रोष और आवेश में भरकर चारों ओर दौड़ रहा हूँ। मेरी दशा तो देखिये। गृहस्थ मनुष्य वेद, शास्त्रों के स्वाध्याय द्वारा तथा नाना प्रकार के दानों से अपने महान पाप को दूर कर देते हैं। जैसा कि मनीषी पुरुषों का कथन है। पृथ्वीनाथ! आश्रम में रहकर सब प्रकार आसक्तियों से मुक्त हो वेदपाठ करने वाले ब्राह्मण को यदि वह पापाचारी हो तो भी उसके द्वारा पड़े जाने वाले वेद उद्धार कर देते हैं। क्षत्रिय शिरोमणे! मैं पाप योनि में उत्पन्न हुआ हूँ। मुझे यह निश्चित नहीं हो पाता कि मैं किस उपाय से मुक्त हो सकूंगा। नरेश्वर! पहले के किसी शुभ कर्म के प्रभाव से मुझे पूर्वजन्म की बातों का स्मरण हो रहा है, जिससे मैं मोक्ष पाने की इच्छा रखता हूँ। सत्पुरुषों में श्रेष्ठ! मैं आपकी शरण में आकर अपना यह संशय पूछ रहा हूँ। आप मुझे इसका समाधान बताइये। मैं चाण्डाल योनि से किस प्रकार मुक्त हो सकता हूँ।' क्षत्रिय ने कहा- 'चाण्डाल! तू उस उपाय को समझ ले, जिससे तुझे मोक्ष प्राप्त होगा। यदि तू ब्राह्मण की रक्षा के लिये अपने प्राणों का परित्याग करे तो तुझे अभीष्ट गति प्राप्त होगी। यदि ब्राह्मण की रक्षा के लिये तू अपना यह शरीर समराग्नि में होम कर कच्चा मांस खाने वाले जीव-जन्तुओं को बाँट दे तो प्राणों की आहुति देने पर तेरा छुटकारा हो सकता है, अन्यथा तू मोक्ष नहीं पा सकेगा।' भीष्म जी कहते हैं- परंतप! क्षत्रिय के ऐसा कहने पर उस चाण्डाल ने ब्राह्मण के धन की रक्षा के लिये युद्ध के मुहाने पर अपने प्राणों की आहुति दे अभीष्ट गति प्राप्त कर ली। बेटा! भरतश्रेष्ठ! महाबाहो! यदि तुम सनातन गति पाना चाहते हो तो तुम्हें ब्राह्मण के धन की रक्षा करनी चाहिये।
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासन पर्व के अंतर्गत दानधर्म पर्व में क्षत्रिय और चाण्डाल का संवाद विषयक एक सौ एकवाँ अध्याय समाप्त हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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