महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 100 श्लोक 21-41

शततम (100) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: शततम अध्याय: श्लोक 21-41 का हिन्दी अनुवाद


अगस्त्य मुनि महामना नहुष को मिले हुए वरदान का प्रभाव जानते थे, इसलिये उसके द्वारा रथ में जोते जाने पर भी वे कुपित नहीं हुए।

भारत! राजा नहुष ने चाबुक मारकर हाँकना आरम्भ किया तो भी उन धर्मात्मा मुनि को क्रोध नहीं आया। तब कुपित हुए देवराज ने महात्मा अगस्त्य के सिर पर बायें पैर से प्रहार किया। उनके मस्तक पर चोट होते ही जटा के भीतर बैठे हुए महर्षि भृगु अत्यन्त कुपित हो उठे और उन्होंने पापआत्मा नहुष को इस प्रकार शाप दिया- 'औ दुर्मते! तुमने इन महामुनि के मस्तक में क्रोधपूर्वक लात मारी है, इसलिये तू शीघ्र ही सर्प होकर पृथ्वी पर चला जा।'

भरतश्रेष्ठ! भृगु नहुष को दिखाई नहीं दे रहे थे। उनके इस प्रकार शाप देने पर नहुष सर्प होकर पृथ्वी पर गिरने लगा। पृथ्वीनाथ यदि नहुष भृगु को देख लेते तो उनके तेज से प्रतिहत होकर वे उन्हें स्वर्ग से नीचे गिराने में समर्थ न होते। महाराज! नहुष ने जो भिन्न-भिन्न प्रकार के दान किये थे, तप और नियमों का अनुष्ठान किया था, उनके प्रभाव से वे पृथ्वी पर गिरकर भी पूर्वजन्म की स्मृति से वंचित नहीं हुए। उन्होंने भृगु को प्रसन्न करते हुए कहा- 'प्रभो! मुझको मिले हुए शाप का अन्त होना चाहिये।

महाराज! तब अगस्त्य ने दया से द्रवित होकर उनके शाप का अन्त करने के लिये भृगु को प्रसन्न किया। तब कृपायुक्त हुऐ भृगु ने उस शाप का अन्त इस प्रकार निश्चित किया।

भृगु ने कहा- 'राजन! तुम्हारे कुल में सर्वश्रेष्ठ युधिष्ठिर नाम से एक प्रसिद्ध राजा होंगे, जो तुम्हें इस शाप से मुक्त करेंगे।' ऐसा कहकर भृगु जी अन्तर्धान हो गये। महातेजस्वी अगस्त्य भी शतक्रतु इन्द्र का कार्य सिद्ध करके द्विजातियों से पूजित होकर अपने आश्रम को चले गये। राजन! तुमने भी नहुष का उस शाप से उद्धार कर दिया। नरेश्‍वर! वे तुम्हारे देखते-देखते ब्रह्मलोकों को चले गये। भृगु उस समय नहुष को पृथ्वी पर गिराकर ब्रह्मा जी के धाम में गये और उनसे उन्होंने सब समाचार निवेदन किया। तब पितामह ब्रह्मा ने इन्द्र तथा अन्य देवताओं को बुलवाकर उनसे कहा- 'देवगण! मेरे वरदान से नहुष ने राज्य प्राप्त किया था। परंतु कुपित हुए अगस्त्य ने उन्हें स्वर्ग से नीचे गिरा दिया। अब वे पृथ्वी पर चले गये। देवताओ! बिना राजा के कहीं भी रहना असंभव है। अतः अपने पूर्व इन्द्र को पुनः देवराज के पद पर अभिषिक्त करो।'

कुन्तीनन्दन! नरेश्‍वर! पितामह ब्रह्मा का यह कथन सुनकर सब देवता हर्ष से खिल उठे और बोले- 'भगवन! ऐसा ही हो।'

राजसिंह! भगवान ब्रह्मा के द्वारा देवराज के पद पर अभिषिक्त हो शतक्रतु इन्द्र फिर पूर्ववत शोभा पाने लगे। इस प्रकार पूर्वकाल में नहुष के अपराध से ऐसी घटना घटी कि वे नहुष बार-बार दीपदान आदि पुण्य कर्मों से सिद्धि को प्राप्त हुऐ थे। इसलिये गृहस्थों को सांयकाल में अवश्‍य दीपदान करने चाहिये। दीपदान करने वाला पुरुष परलोक में दिव्य नेत्र प्राप्त करता है। दीपदान करने वाले मनुष्य निश्‍चय ही पूर्ण चन्द्रमा के समान कांतिमान होते हैं। जितने पलकों के गिरने तक दीपक जलते है, उतने वर्षों तक दीपदान करने वाला मनुष्य रूपवान और बलवान होता है।


इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासन पर्व के अंतर्गत दानधर्म पर्व में अगस्त्य और भृगु का संवाद नामक सौवाँ अध्याय समाप्त हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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