महाकवि घनानन्द का प्रेम निवेदन 2

‘महाकवि घनानन्द का प्रेम-निवेदन’

डा. श्री लखनलालजी खरे, एम.ए., पी-एच.डी.
नेह सों भोंय संजोय धरी हिय दीप दसा जु भरी अति आरति,
रूप उज्यारे अजू ब्रजमोहन, सौंहनि आवनि ओर निहारति।
रावरी आरति बावरी लौं घनआनँद भूलि वियोग निवारति,
भवाना धार हुलास के हाथनि मोहित मूरति हेरि उतारति।।
घनानन्द की दृष्टि में प्रेम संसार और जीवन का महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। प्रेम पन्थ ज्ञान पन्थ से भी श्रेष्ठ है। इसमें प्रिय और प्रियतम के मध्य द्वैतभाव सर्वथा तिरोहित हो जाता है। प्रेम की वृत्ति सर्वथा निर्मल है, जिसे धारण करने से समस्त वासनाएँ विलुप्त हो जाती हैं और अन्तः करण विशुद्धानन्द-रस-वर्षण से आप्लावित हो जाता है -
चंदहि चकोर करे सोऊ ससि देह धरै,
मनसा हू ररै एक देखिबे को रहै द्वै।
ज्ञान हू ते आगे जाकी पदवी परम ऊँची,
रस उपजाबे ता में भोगी भोग जात ग्वै।।
सं. 1796 में मथुरा पर नादिरशाह ने आक्रमण किया। ‘यह बादशाह का मीरमुंशी था। अतः इसके पास धन बहुत होगा’ - यह सोचकर सिपाही ‘जर-जर’ कहकर उनसे धन की माँग करने लगे। विरक्त संन्यासी घनानन्द ने ‘जर’ का उलटा ‘रज-रज’ कहकर मथुरा की पावन धूल उनकी ओर उछाल दी। क्रोधान्ध सिपाहियों ने इनका वध कर दिया। मृत्यु के समय हृदय की समस्त पीड़ा उनके निम्नलिखित पद में ध्वनित हो उठी-
बहुत दिनान की अवधि आसपास परे,
खरे अरबरनि भरे हैं उठि जान को।
कहि कहि आवन छबीले मनभावन को,
गहि गहि राखति ही दै दै सनमान को।
झूठी बतियानि की पत्यानि तें उदास ह्वै कै,
अब तो घिरत घन आनँद निदान को।
अधर लगे हैं आनि करि कै पयान प्रान,
चाहत चलन ये सँदेसो लै सुजान को।।

 


टीका टिप्पणी और संदर्भ

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