महर वृषभानु की यह कुमारी -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग गौड़ मलार


महर वृषभानु की यह कुमारी।
देवधामी करत, द्वार द्वारै परत,
पुत्र द्वै, तीसरैं यहै बारी।।
भई बरस सात की, सुभ भरी जात की,
प्यारी दोउ भ्रात की, बची भारी।
कुँवरि दई अन्हवाइ, गई तन-मुरझाइ,
बसन पहिराइ, कछु कहति खा री।।
जाहि जनि खरिक-तन, खेलि अपनैं सदन,
यह सुनति हँसत मन स्याम-नारी।
सूर प्रभु-ध्यान धरि, हरषि आनंद भरि,
गाँव घर खेलिहौं कहति का री!।।699।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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