मलयज पवन, उल्लसित पुलकित -हनुमान प्रसाद पोद्दार

पद रत्नाकर -हनुमान प्रसाद पोद्दार

श्रीराधा माधव लीला माधुरी

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तर्ज लावनी - ताल कहरवा


मलयज पवन, उल्लसित पुलकित लता-गुल्म-तरु क्षुद्र विशाल।
कानन कलित सुशोभित, पिक-शुक-कूजित, मुकुलित मधुर रसाल॥
निर्मल जल-पूरित सर-सरिता करती शीतलता संचार।
कुञ्ज-कुटीर कुसुम नव-पल्लव, करते अलि-कुल मधुर गुँजार॥
आयी अतिशय प्रमुदित राधा अन्तरङ्ग सखियाँ ले साथ।
हँस-हँस थी कर रही मधुर आलाप हिलाती कोमल हाथ॥
बता रही थी, कैसे वह कल आ न सकी थी कुज-कुटीर।
कैसे बेसुध थी, कैसे था रहा अचेतन स्थूल शरीर॥
प्रियतम-ध्यान-जनित-सुख-सागर में वह कैसे रही निमग्र।
रहा न था कुछ भी थी वह बस केवल प्रियतमसे संलग्र॥
बाह्य-ज्ञान-विरहित, बरबस, वह याद न रख पायी संकेत।
इसीलिये वह बाहर देख न पायी प्रिय आनन्द-निकेत॥
सखियों से कह रही लाड़िली थी यों-इसी बीच शुचि एक।
श्याम-सखी आ बोली-’राधा! सुनो बात मेरी सविवेक॥
अखिल-रसामृत-सिन्धु रसिक-प्रिय यहाँ पधारे थे कल श्याम।
बड़ी मधुर आशा ले मनमें तुमसे मिलने की अभिराम॥
पर न प्राप्त कर तुम्हें हु‌ए अति कातर-दुखी स्वयं सुख-धाम।
भूल अन्न-जल-निद्रा, रहे प्रतीक्षा में आतुर वसु-याम॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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