मन ही मन रीझति है राधा, वह पिय रूप निहारै।
निरखि भाल वेंदी सेंदुर की, छवि पर तन मन बारे।।
यह मन कहति सखी जनि देखै, बूझे से कह कैहौ।
तिहूँ भुवन सोभा सुख की निधि, कैसें इन्है दुरैहौ।।
पग जेहरि बिछियनि की झमकनि, चलत परसपर बाजति।
'सूर' स्याम स्यामा सुख जोरी, मनि-कंचन-छबि लाजत।।2156।।