मन हरि सौं तनु घरहिं चलावति।
ज्यौं गज मत्त लाज-अंकुस करि, घर गुरुजन-सुधि आवति।।
हरि रस रूप यहै मद आवत, डर डारयौ जु महावत।
गेह-नेह-बंधन-पग तोरयौ, प्रेम-सरोवर धावत।।
रोमावली सुंड, बिबि कुच मनु, कुंभस्थल-छवि पावत।
सूर स्याम केहरि सुनि कै ज्यौ बन-गज-दर्प नतावत।।1629।।