(मन) राम-नाम-सुमिरन बिनु, बादि जनम खोयौ।
रंचक सुख कारन तैं अंत क्यौं बिगोयौ।
साधु-संग, भझि बिना, तन अकार्थ जाई।
ज्वारी ज्यौं हाथ झारि, चाल छुटकाई।
दारा-सुत, देह-गेह, संपति सुखदाई।
इनमैं कछु नाहिं तेरौ, काल-अवधि आई।
काम-क्रोध-लोभ-मोह-तृष्ना मन मोयौ।
गोविंद-गुन चित बिसारि, कौन नींद सोयौ।
सूर कहै चित बिचारि, भूल्यौ भ्रम अंधा।
राम-राम भजि लै, तजि औंर सकल धंधा।।330।।