मन मैं जु आनंद कियौ भारी -सूरदास

सूरसागर

1.परिशिष्ट

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छंद

मन मैं जु आनंद कियौ भारी निरखि छवि विह्वल भई।
मेरे बबा कौ नाम लै लै तोहिं हँसि गारी दई।।
पाटी जु पारि सँवारि भूषन गोद मैं मेवा भरी।
लखि ‘सूर’ के प्रभु हरषि हिय मैं बिधिना सौ बिनती करी।।
इतनी सुनि कीरति मुसुकानी। नँदरानी के जिय की जानी।।
मेरी सुता रूप की रासी। कान्ह उदासी अरु बनवासी।।

छंद

स्याम बनवासी उदासी रंग ढंग न क्यौ हूँ बनै।
नील मनि ढिग नग अमोलिक काँच कंचन क्यौ सनै।।
ललिता विसाखा सौ कह्यौ झुकि लली तजि तुम कित रही।
‘सूर’ के प्रभु भवन बाहिर जान मति दीजौ कही।।
दिन दस पाँच अटक जब कीन्हे। कुँवरिहिं कान्ह दिखाइ न दीन्हे।।
मुरछि परी तनसुधि न सम्हारै। प्यारी डसी भुअगम कारै।।

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