मन कै भेद नैन गए माई।
लुब्धे जाइ स्याम-सुंदर-रस, करी न कछू भलाई।।
जबहीं स्याम अचानक आए, इकटक रहे लगाई।
लोकसकुच, मरजादा कुल की, छिनही मैं बिसराई।।
ब्याकुल फिरति भवन बन जहँ तहँ तूल आक उघराई।
देह नही अपनी सी लागति, यह है मनौ पराई।।
सुनहु सखी मन के ढँग ऐसे, ऐसी बुद्धि उपाई।
'सूर' स्याम लोचन बस कीन्हे, रूप ठगौरी लाई।।2229।।