मन की मन ही मैं नहिं माति।
सहियत कठिन सूल निसि बासर, कहैं कही नहिं जाति।।
हरि के संग किए सुख जेते, ते अब रिपु भए गात।
स्वाति बूँद इक सीप सु मोती, विष भयौ कदली पात।।
यहई ब्रज येई ब्रजसुदरि, औरै अब रस रीति।
‘सूर’ कौन जानै यह बिपदा, जौ भरियत करि प्रीति।। 3284।।