मन-बच-क्रम मन, गोविंद सुधि करि।
सुचि-रुचि सहज समाधि साटि सठ, दीनबंधु करुनामय उर धरि।
मिथ्या बाद-बिवाद छाँड़ि दै, काम-क्रोध-मद-लोभहि परिहरि।
चरन प्रताप आनि उर अंतर, और सकल सुख या सुख तरहरि।
बेदनि कह्यौ, सुमृतिहूँ भाष्यो, पावन-पतित नाम निज नरहरि।
जाकौ सुजस सुनत अरु गावत, जैहै पाप-बृंद भजि भरहरि।
परम उदार, स्याम-घन सुंदर, सुखदायक, संतत हितकर हरि।
दीनदयाल, गोपाल, गोपपति, गावत गुन आवत ढिग ढरहरि।
अति भयभीत निरखि भवसागर, घन ज्यौं धेरि रह्यौ घट घरहरि।
जब जम जाल-पसार परैगौ, हरि बिनु कौन करैगौ धरहरि ?
अजहूँ चेति मूढ, चहुँ दिसि तैं उपजी काल-अगिनि झर झरहरि।
सूर काल-बल-ब्याल ग्रसत है, श्रीपति-सरन परत किन फरहरि।।312।।