मनौ दोउ एकहिं मते भए।
ऊधौ अरु अकूर बधिक मति, ब्रज आखेट ठए।।
बचन फाँस बाँदधे मृग माधौ, उन रथ लाइ लए।
इनही हेरि मृगी गोपी सब, सायकज्ञान हए।।
जोग अगिनि की दवा देखियत, चहु दिसि लाइ दए।
अब धौ कहा कियौ चाहत हैं, करि उपचार नए।।
परमारथी परम कैतव चित, विरिहिनि प्रेम रए।
कैसै जिऐं ‘सूर’ के प्रभु बिनु, चातकु मेघ गए।।3588।।