मनसिज माधवै मानिनिहि मारिहै।।
त्रोटि परलव अरत परमौ अर निरखि निमुख को तारिहै।।
किसलय कुसुम कुंत सम सायक, पायक पवन विचारिहै।
द्रुम बल्ली यह दीप जुग बनी, जनति अनल विय जारिहै।।
भँवर जु एक चकृत चामर कर भरि बंडुप खग डारिहै।
पुनि पुनि वाज साज सुनि सुंदरि, वसित तिनहि देखे मारिहै।।
विरह विभूति वढी वनिता वपु, सीस जटा वनवारि है।।
मुख समि सेस रह्यौ सित मानौ, भई तमौ उनहारि है।।
जौ न इते पर चलहु कृपानिधि, तौ वह निज कर सारिहै।
'सूरदास' प्रभु रसिकसिरोमनि, तुम तजि काहि पुकारिहै।।2116।।