मधुकर समुझायौ सौ बेरनि।
अहो मधुप निसि दिन मरियत है, कान्ह कुँवर औसेरनि।।
चित चुभि रही मनोहर मूरति, चपल दृगनि की हेरनि।
तन मन लियौ चुराइ हमारौ, वा मुरली की टेरनि।।
बिसरत नाहिं सुभग भुज सोभा, पीतांबर की फेरनि।
कहत न बनै कान्ह कामरि छवि, वन गैयनि की घेरनि।।
तुम प्रवीन ह्वै हमहिं बतावत, आँखि मूँदि भट भेरनि।
नंदकुमार छाँड़ि को लैहै, जोग दुखनि की घेरनि।।
जहाँ न परम उदार नंदसुत, मुकुति परौ किन झेरनि।
‘सूर’ रसिक बिनु क्यौ जीवतु है, निरगुन कठिन करेरनि।।3889।।